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५२ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
रहा है, उसका कोई उपाय नहीं। वह तो पिछले जन्म के किए हुए बुरे कर्मों का फल है। इस जीवन में जितना अच्छा कर्म करेंगे, उतना ही अगला जीवन अच्छा होगा।
उनके अच्छे जीवन की कल्पना है-पास में खूब धन हो, अच्छा मकान हो, अच्छा परिवार हो, नौकर-चाकर हों तथा सुख-सुविधा के सब साधन उपलब्ध हों। अप्रामाणिकता, झूठ, विश्वासघात आदि उनके अच्छे जीवन की कल्पना में बाधक नहीं हैं। वे संन्यासी नहीं हैं। उन्हें व्यापार कर जीविका चलाना है। क्या प्रामाणिकता, सचाई आदि से जीविका चलाई जा सकती है? ये तर्क उनके व्यवहार को कभी विशुद्ध नहीं होने देते। उनकी धर्म की कल्पना को मैं एक घटना के द्वारा स्पष्ट करूं।
एक दिन गोष्ठी में एक नया चेहरा दिखाई दिया। उपस्थित गोष्ठी-सदस्यों ने जिज्ञासा के साथ पूछा-'तुम्हारे जीवन की विशेषता क्या है? वह बोला-'मेरे जीवन की विशेषता यह है कि मैं धर्म को कभी नहीं छोड़ता।' सबने उसकी ओर आश्चर्यभरी दृष्टि से देखा तो उसका उत्साह आगे बढ़ा। वह बोला-'मैंने जरूरत पड़ने पर शराब पी ली, जुआ खेल लिया, पर धर्म को नहीं छोड़ा। भूख की समस्या बड़ी जटिल है, उसके लिए कभी-कभी चोरी भी की और डाका भी डाला, पर धर्म नहीं छोड़ा। मन की दुर्बलता हर आदमी में होती है। उसके वशीभूत हो वेश्यागमन भी कर गया, पर धर्म नहीं छोड़ा। कभी-कभी क्रोध के वश में आ खून भी कर डाला, पर धर्म नहीं छोड़ा।' वह आंख मूंदकर अपनी प्रशंसा के गीत गाता ही चला गया। एक सदस्य ने ससम्मान पूछा- 'तो महाशय! आपका धर्म क्या है? वह गर्व की भाषा में बोला-'मैंने अछूत के हाथ का नहीं खाया। हजार कठिनाइयां सहीं, सब कुछ किया, पर धर्म पर अडिग रहा।'
ऐसी अनेक घटनाएं हैं और अनेक कहानियां। लोक-मानस में धर्म का जो चित्र है, उसे वे हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं। ऐसे धर्म-चित्र से तृप्ति न हो, ऐसे लोग भी कम नहीं हैं। मनुष्य अपने आवेगों के उभार में रसानुभूति करता है। उसने धर्म-क्षेत्र को भी उससे अछूता नहीं छोड़ा है। धर्म का स्वरूप है आवेगों का उपशमन। पर क्या ऐसा धर्म आचरण में रहा है?
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