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१. धर्म एक : कल्पनाएं तीन
मेरे सामने एक चित्र उभर रहा है। उसके तीन पहलू हैं
पहला-एक आदमी धार्मिक क्रियाकाण्ड कर रहा था। मैंने पूछा-'यह किसलिए करते हो, भैया? उसने सहज मुद्रा में उत्तर दिया-'इससे परलोक सुधरेगा।'
दूसरा-एक आदमी व्यापार करता था। उसने अनेक प्रयत्न किए पर वह सफल नहीं हुआ। वह निराश हो गया। उसने सारा समय धार्मिक क्रियाकाण्ड में लगाना शुरू कर दिया। एक दिन मैंने पूछा-'तुम तो बहुत समय लगाते हो इस क्रियाकाण्ड में? वह बोला-'पिछले जन्म में बुरे कर्म किए थे, इसलिए यहां दुःख पा रहा हूं। यहां कुछ कर लूं जिससे अगला जन्म सुधर जाए, वहां इतना दुःख न भुगतना पड़े।' ।
तीसरा-एक आदमी बहुत झगड़ालू था। जितना झगड़ालू, उतना ही धर्म-प्रेमी। धर्म-प्रेम और कलह दोनों एक साथ इतने हो सकते हैं, यह मैं नहीं समझ सका। पर वह अपने को धर्म-प्रेमी मानता था और दूसरे लोग भी उसे धर्म-प्रेमी कहते थे। मैंने एक दिन कहा-'तुम दिनभर लड़ते-झगड़ते हो, फिर धर्म करने का क्या अर्थ होगा? वह बोला'महाराज! लड़ने की तो आदत पड़ गई। वह अब कैसे छूटे? यह जीवन तो अब जैसा है वैसा ही रहेगा। अच्छा है धर्म करने से परलोक सुधर जाए।'
तीनों पहलुओं का समग्र चित्र जो उभरता है, उसका आकार यह है कि धार्मिक लोगों को परलोक सुधारने की जितनी चिन्ता है, उतनी इहलोक सुधारने की नहीं है। उनमें परलोक को सुखमय बनाने की जितनी धुन है, उतनी इहलोक को सुखमय बनाने की नहीं है। यह अकारण भी नहीं। उनकी मान्यता है कि इस जीवन में जो बुरा कर्म हो
धार्मिक लोगों को परला उनमें परलोक को सुखमय है। यह
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