SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अहिंसा का अर्थ ३६ प्रभावित होकर करता है, हिंसा को स्वीकार करके करता है। हिंसा और हिंसा-परस्पर सजातीय हैं। इसीलिए हिंसा हिंसा को मारती नहीं, उबारती है, उसे परम्परा-पात में प्रवाहित करती है। __ अहिंसा में विश्वास करने वाला हिंसा का प्रतिरोध और प्रतिकार उससे अप्रभावित होकर करता है-हिंसा की परिस्थिति को मान्यता न देते हुए करता है। हिंसा और अहिंसा परस्पर विजातीय हैं। इसीलिए अहिंसा से हिंसा निरस्त हो जाती है, उसकी परम्परा समाप्त हो जाती है। अहिंसा की प्रतिरोध-शक्ति है-स्वतन्त्र चेतना का अनावृतीकरण और उसकी प्रतिकार शक्ति है-प्रेम का विस्तार और उतना विस्तार, जिसमें शून्य न हो, अप्रीति के लिए कोई अवकाश न हो। मैं विमल दृष्टि से देखता हूं-यदि मैं परिस्थिति-परतन्त्र चेतना को मान्यता देकर चलता तो मेरा शक्ति-बीज अंकुरित होने से पहले ही विलुप्त हो जाता। ___ मैंने न जाने कितनी बार इस सूत्र की पुनरावृत्ति की है-“वह पराजय को निमन्त्रण देता है जो क्रिया से विमुख हो प्रतिक्रिया के सम्मुख चलता है।' प्रेम का विस्तार, यह मेरी क्रिया है। इसमें मेरी चेतना का स्वतन्त्र कर्तृत्व है। इससे प्रतिहत होकर हिंसा अपनी मौत मर जाती है। __मैं हिंसा का प्रतिकार हिंसा से करने लगूं तो वह मेरी प्रतिक्रिया होगी। मेरे द्वारा नियन्त्रित क्रिया नहीं किन्तु सम्मुखीन परिस्थिति द्वारा नियंत्रित क्रिया होगी, यानी प्रतिक्रिया होगी। इस प्रतिक्रिया से मुझे बल नहीं मिलता। किन्तु मेरा बल उसमें जाता है, जिसके प्रति मैं क्रिया करता हूं। इसका अर्थ होता है, मेरी विरोधी परिस्थिति मेरे बल का संबल पाकर अपनी प्रहार-शक्ति को तीव्र बना लेती है। क्या मेरी मूर्खता का इससे अनुपम उदाहरण और कोई हो सकता है कि मैं अपनी शक्ति का दान उसके लिए करूं, जो मुझे शक्ति-शून्य करना चाहती है? 'आत्म-विश्वास जितना शून्य होता है, उतना ही उसमें परिस्थिति को अवकाश मिलता है'-इस सूत्र ने मुझे जो आलोक दिया है, उससे मैं लाभान्वित हुआ हूं और अमा की अंधियारी में भी अपना पथ देख लेता हूं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy