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३८ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
न हो। अब मेरी अहिंसा का प्रकाश-स्तम्भ यही है। इसमें प्राणी-दया के प्रति मेरा मन पहले से अधिक संवेदनशील बना है, दूसरे की पीड़ा में अपनी पीड़ा की तीव्र अनुभूति होने लगी है, यदि मैं परिस्थिति की कारा का बन्दी बना बैठा रहता तो दूसरों के प्रति निरन्तर संवदेनशील नहीं रह पाता। ___ परिस्थिति निरन्तर एक रूप नहीं रहती। उसके प्रतिबिम्ब को स्वीकार करने वाली चेतना भी एकरूप नहीं रह सकती। कुछ लोग मुझे व्यवहार-कुशल मानते हैं तो कुछ लोग मानते हैं कि मैं व्यवहार-कुशल नहीं हूं। कुछ लोग मानते हैं, मैं आध्यात्मिक हूं तो कुछ लोग मानते हैं, यह मेरी सारी राजनीति है। अनेक तुलाएं हैं और अनेक मापदण्ड। मैं तुलनीय हूं, इसलिए तोला जाता हूं। मैं माप्य हूं, इसलिए मापा जाता हूं। यदि मैं तुलातीत और मापातीत होता तो मेरी अहिंसा प्रस्तर-जगत् की अहिंसा और मेरी शान्ति श्मशान की शान्ति होती। मेरी अहिंसा चेतना-जगत् की अहिंसा है और मेरी शान्ति तुमुल के मध्य में स्नात शान्ति है। इसका साक्ष्य यही है कि मैं दूसरों की तुला से तुलित अपने व्यक्तित्व का निरीक्षण-परीक्षण करता हूं पर मान्यता उसी व्यक्तित्व को देता हूं, जो मेरी अपनी तुला से तुलित है। मेरे लिए मानदण्ड भी मेरा अपना है। इसमें मेरा अहं नहीं बोल रहा है। यह मेरे अस्तित्व का बोध है जो किसी अपर सत्ता से प्रतिहत नहीं होता। यह अस्तित्व का अप्रतिघात ही मेरी आज की अहिंसा है। ____ अहिंसा के दो आयाम हैं-प्रतिरोध और प्रतिकार। हिंसा के भी ये दो आयाम हैं। प्रतिरोध अपना बचाव है और प्रतिकार है परिस्थिति पर आघात। अहिंसा में प्रतिरोध और प्रतिकार की शक्ति नहीं रही तो अहिंसक निर्वीर्य बन जाएगा, शक्ति-संतुलन हिंसा के हाथ में चला जाएगा।
आज जन-साधारण में अहिंसा के प्रति जो भ्रम है, वह निरस्त होना चाहिए। उसे यह अनुभव होना चाहिए कि अहिंसा निर्वीर्य नहीं है। उसमें प्रतिरोध और प्रतिकार की क्षमता हिंसा की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म और तीव्र है।
हिंसा में विश्वास करने वाला उसका प्रतिरोध और प्रतिकार उससे
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