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४० मैं मेरा मन : मेरी शान्ति
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मैं कई वर्षों से इस साधना के प्रति प्रयत्नशील हूं कि मेरे मन में अप्रियता की अनुभूति का स्रोत सूख जाए। वह स्रोत, जो मेरे भीतर प्रवाहित होकर मेरी सुखानुभूति की पौध को पल्लवित नहीं करता, किन्तु सुखाता है ।
'अप्रियता की अनुभूति जिसके प्रति होती है, वहां तक पहुंचे बिना ही वह लौटकर अपने उद्गम में आ जाती है और वहां अपना काम करती है' - इस सत्य की अनुभूति मुझे जब से हुई है, तब से मैं मानता हूं कि मैंने अहिंसा-देवता को अपनी आस्था अर्पित की है
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मैं आज अन्तःकरण का उद्घाटन नहीं कर रहा हूं। मैं उस शाश्वत सत्य के आलोक में अपना अन्तःकरण पढ़ रहा हूं । सुख-दुःख की मनोग्रन्थियों से मुक्त वही है, जो सर्दी और गर्मी से प्रभावित नहीं है । बन्धन को तोड़ sa में सक्षम वही है, जो परिस्थिति का प्रतिबिम्ब नहीं है ।
बिम्ब और प्रतिबिम्ब का जगत् प्रतिक्रिया का जगत् है । उस जगत् का शब्दकोश स्वतन्त्रता जैसे शब्द से शून्य है । वहां न स्वतःस्फूर्त क्रिया है और न अपना कर्तृत्व, न अपनी शक्ति है और न अपना आनन्द । वहां जो कुछ है, वह है प्रतिबिम्ब और आभास, खेद और आयास, और तब तक जब तक हिंसा का रंगमंच आकर्षण का केन्द्र-बिन्दु बना हुआ है।
१७. अहिंसा की अनुस्यूति
मैंने कई बार सोचा- अपने आपको अनावृत कर दूं, जिससे मेरे साथी मुझे साक्षात् देख सकें । यह आवरण ही उन्हें संदिग्ध किए हुए है। जब तक आवरण रहेगा तब तक सन्देह निरस्त नहीं होगा । विश्वास अनावरण में उपजता है । इस सृष्टि को द्वन्द्व पसन्द है । इसीलिए इस परदे की सृष्टि हुई । यदि यह संसार सीधा-सरल होता, कहीं कोई घुमाव या छिपाव नहीं होता तो सन्देह जन्म ही नहीं ले पाता ।
पर सृष्टि द्वन्द्व चाहती है, सबको एक होने देना नहीं चाहती, इसलिए अनेक घुमाव और छिपाव हैं। जहां-जहां घुमाव और छिपाव हैं, वहां-वहां सन्देह है
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