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अहिंसा की अनुस्यूति ४१
मैंने कई बार सोचा- कोई ऐसा दीप जलाऊं, जिससे मेरे साथी मुझे साक्षात् देख सकें । यह अन्धकार ही उन्हें संदिग्ध किए हुए है। जब तक अन्धकार रहेगा, तब तक सन्देह निरस्त नहीं होगा । विश्वास प्रकाश में उपजता है । इस सृष्टि को द्वन्द्व पसन्द है । इसीलिए वह प्रकाश के साथ-साथ अन्धकार को भी अवकाश देती है ।
मैंने कई बार सोचा - इस हिमालय के उत्तुंग शिखरों को तोड़ डालूं, जिससे मेरे साथी मुझे साक्षात् देख सकें । यह ऊंचाई ही उन्हें संदिग्ध किए हुए है। जब तक ऊंचाई रहेगी तब तक सन्देह निरस्त नहीं होगा । विश्वास समतल में उपजता है । इस सृष्टि को विषमता पसन्द है । इसीलिए उसने दो समतलों के बीच एक ऊंचाई चिन रखी है।
मैंने कई बार सोचा - इस अनन्त जलराशि को सुखा दूं, जिससे मेरे साथी मुझे साक्षात् देख सकें। यह गहराई ही उन्हें संदिग्ध किए हुए है । जब तक गहराई रहेगी, तब तक सन्देह निरस्त नहीं होगा । विश्वास समतलों में उपजता है । इस सृष्टि को विषमता पसन्द है, इसीलिए उसने दो समतल के बीच एक गहराई बिछा रखी है।
मैंने कई बार सोचा - इस प्रासाद वास को छोड़ दूं, जिससे मेरे साथी मुझे साक्षात् देख सकें। यह दीवार का व्यवधान ही उन्हें संदिग्ध किए हुए है। जब तक व्यवधान रहेगा, तब तक सन्देह निरस्त नहीं होगा। विश्वास अव्यवधान में उपजता है । इस सृष्टि को द्वन्द्व पसन्द है । इसीलिए यह प्रासाद-सृष्टि हुई है। यदि आकाश मुक्त ही होता तो सन्देह उपज ही नहीं पाता। जहां-जहां मनुष्य ने आकाश को बांधा है, वहां-वहां सन्देह को जन्म मिला है।
मैंने फिर सोचा- मैं कहीं पतवार -विहीन नौका की भांति कल्पना के अविराम प्रवाह में बहा तो नहीं जा रहा हूं?
मैंने फिर सोचा- मैं कहीं चक्रवात में उलझे हुए पंछी की भांति अनन्त आकाश में उड़ा तो नहीं जा रहा हूं?
क्या मेरी नौका को कोई तट प्राप्त है? क्या मेरे पंछी का कोई धरातल है ? क्या अनावरण, प्रकाश, अव्यवधान और समतल वास्तविक हैं ? व्यावहारिक हैं ? क्या इन कठपुतलियों के लिए ये संभाव्य हैं ? एक के बाद एक प्रश्न मेरे मन में उठने लगे और मेरे साथियों के
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