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________________ ४२ मैं मेरा मन : मेरी शान्ति : असंख्य स्वर मेरे कानों में गूंजने लगे-वे अवास्तविक हैं, अव्यावहारिक हैं और असंभाव्य हैं- इन कठपुतलियों के लिए, जो चालित हैं, किन्तु स्वयं के द्वारा नहीं । वे स्वर बहुत मीठे थे। पर न जाने क्या हुआ, वे मुझे नहीं मोह सके। सांपकाटे को नीम मीठा लगता है । यह विपर्यय है पर मिथ्या नहीं है । मैं सर्प-दष्ट नहीं था, यह कैसे कहूं? जिसमें हिंसा का एक संस्कार भी शेष है, जिसके चैतसिक दर्पण में उसका धुंधला - सा प्रतिबिम्ब भी अंकित है, वह विषविमुक्त नहीं है और उसे नीम मीठा लगना ही चाहिए । शेष दुनिया को जो कड़वा लगे, वह विष - व्यथित को मीठा न लगे तो समझना चाहिए, उसकी चेतना मूर्च्छित हो चुकी है। वह असाध्य अवस्था तक पहुंच चुका है। तब दुनिया को कड़वे लगने वाले अध्यात्म के स्वर मुझे मीठे लगे, मैंने सोचा मुझमें जहर है। मिठास की अनुभूति ने मुझे आश्वस्त भी किया कि मैं असाध्य रोगी नहीं हूं । मेरे चिकित्सक ने किसी को असाध्य माना ही नहीं था । उसका ध्वनि-निर्घोष है यह मेरी दवा उन सबके लिए है जो विष की वेदना से व्यथित हैं, भले फिर वे - जागृत हों या निद्रा - रत स्फूर्त हों या अलस गतिशील हों या स्थितिशील शोथ - युक्त हों या शोथ - मुक्त आबद्ध हों या निर्बन्ध । मेरे चिकित्सक ने मुझे इतना प्रभावित कर दिया कि मैं अपने साथियों को सन्तोष नहीं दे सका। मैं जैसे-जैसे विषमुक्त होता जा रहा हूं, वैसे-वैसे मेरी मान्यताएं प्रश्नचिह्न बनती जा रही हैं । मैंने मान रखा था - चीनी मीठी है, नीम कड़वा है। आज वह प्रश्नचिह्न बन गया है- क्या चीनी मीठी है? क्या नीम कड़वा है? मैंने मान रखा था - अग्नि गर्म है, बर्फ ठण्डी है। आज वह प्रश्नचिह्न बन गई है- क्या अग्नि गर्म है? क्या बर्फ ठण्डी है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
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