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अहिंसा की अनुस्यूति ४३ मैंने मान रखा था-यह अन्धकार है, यह प्रकाश है। किन्तु किसी अज्ञात से प्रश्नचिह्न उभर रहा है-क्या अन्धकार अन्धकार ही है? क्या प्रकाश प्रकाश ही है?
इन प्रश्नचिह्नों ने मेरा मन आन्दोलित कर दिया। मेरी मूर्छित चेतना जाग उठी। अब मैं देखता हूं, सुनता नहीं हूं। अब मैं जानता हूं, मानता. नहीं हूं। मैं देख रहा हूं और साक्षात् देख रहा हूं-स्वार्थ की समरेखा में सब सबके लिए मधुर हैं और स्वार्थ की विषमरेखा में सब सबके लिए कटु हैं। कोई किसी के लिए नितान्त मधुर नहीं है और कोई किसी के लिए नितान्त कटु नहीं है। जो मधुर है, वह कटु भी है
और जो कटु है, वह मधुर भी है। ___मैं देख रहा हूं और साक्षात् देख रहा हूं-शक्ति-शून्य सत्ता के सम्मख सब गर्म हैं और शक्ति-सम्पन्न सत्ता के सम्मख सब ठंडे हैं। कोई किसी के लिए नितान्त गर्म नहीं है और कोई किसी के लिए नितान्त ठण्डा नहीं है। जो गर्म है, वह ठण्डा भी है और जो ठण्डा है. वह गर्म भी है। ____ मैं देख रहा हूं और साक्षात् देख रहा हूं-जो दृष्टि से विपन्न है, उसके लिए चहुं ओर अन्धकार ही अन्धकार है और जो दृष्टि से सम्पन्न है, उसके लिए चहुं ओर प्रकाश ही प्रकाश है। नितान्त अन्धकार जैसा भी कुछ नहीं है और नितान्त प्रकाश जैसा भी कुछ नहीं है। जो अन्धकार है, वह प्रकाश भी है और जो प्रकाश है, वह अन्धकार भी है।
इस अहिंसा की अनुभूति ने मुझे उस संदर्भ तक पहुंचा दिया-जो आने का मार्ग है, वही जाने का मार्ग है, और जो जाने का मार्ग है, वही आने का मार्ग है।
इसी सत्य की अनुभूति से अनुप्राणित हो, एक बार मैंने लिखा था-जो आरोहण के सोपान हैं, वे ही अवरोहण के सोपान हैं और जो अवरोहण के सोपान हैं, वे ही आरोहण के सोपान हैं। आरोहण और अवरोहण के सोपान दो नहीं हैं।
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