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४४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
१८ सापेक्ष सत्य
मेरी आंखों के सामने एक वृद्ध का चित्र उभर रहा है। वह अपने यौवन में बहुत स्वस्थ और सुन्दर रहा है। उसमें जितनी कर्मजा शक्ति थी, उतना ही वह कर्म-कुशल था। वह चर्म-चक्षुओं और कर्म-चक्षुओं-दोनों के लिए आकर्षण-केन्द्र था। अब वह वृद्ध हो गया है। उसका सुन्दर शरीर वलि-संवलित हो गया है। उसकी ललित केशराशि पलित हो गई है। उसका स्वस्थ शरीर रुग्ण हो गया है। अब वह चर्म-चक्षुओं का आकर्षण-केन्द्र नहीं है। उसके ज्ञानेन्द्रिय शिथिल हो चुके हैं और कर्मेन्द्रिय शक्तिहीन। अब वह कर्म-कुशल नहीं है और चर्म-चक्षुओं का आकर्षण-केन्द्र भी नहीं है। वह अतीत की स्थिति का स्मरण कर दुःख का संवेदन कर रहा है। यह दुःख वर्तमान में है, किन्तु वर्तमान की स्थिति से प्राप्त नहीं है। वह अतीत के संदर्भ में वर्तमान की स्थिति से प्राप्त है। यदि वह अतीत में स्वस्थ और सुन्दर नहीं होता, यदि वह अतीत में कर्मठ और कर्म-कुशल नहीं होता और जनता के लिए आकर्षण-केन्द्र नहीं होता तो वह इतना दुःखी नहीं होता। ___ यदि अतीत और वर्तमान की स्मृति-शृंखला उसमें नहीं होती, मैं वही हूं-यह प्रत्यभिज्ञा नहीं होती तो वह दुःखी नहीं होता। ____ मैं जिस पर्याय में आकर्षण-केन्द्र था, वह पर्याय सम्पन्न हो चुका है। मैं अभी जिस पर्याय में हूं, वह अभिनव पर्याय उत्पन्न हुआ है। उसमें आकर्षण-केन्द्र बनने की क्षमता नहीं है। इस प्रकार वस्तुगत एकता में अवस्थागत भिन्नता का सम्यक् संवेदन होता तो वह दुःखी नहीं होता। - यदि उसका ज्ञान और दर्शन सम्यक् होता तो वह दुःखी नहीं होता।
यह अतीत से आवृत वर्तमान भगवान् महावीर का नैगम नय है।
एक किसान ने अपनी पत्नी से कहा-'मैं भैंस ला रहा हूं।' वह बोली-'भले लाओ, पर दूध की मलाई अपनी मां को खिलाऊंगी।' किसान बोला- 'यह कैसे हो सकता है? भैंस मैं लाऊं और मलाई खाए तुम्हारी मां! इस बात पर विवाद बढ़ गया। दोनों लड़ पड़े।
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