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सर्वांगीण दृष्टिकोण २०७
है, क्योंकि वह कृत है। आकाश नित्य है क्योंकि वह अकृत है। कृत का मूल्य शाश्वत नहीं होता। सहज निष्पन्न अच्छा होता है। __मैंने मानसिक शान्ति के सोलह सूत्र निश्चित किए हैं। उनमें पूर्वापर क्रम नहीं सोचा था। किन्तु अब लगता है कि उनमें क्रम है। शरीर और मन का गहरा सम्बन्ध है। इन्द्रियों के साथ भी मन का घनिष्ठ योग है। उन्हें साधना भी बहुत आवश्यक है। एक योगविद् ने कहा है
'तत्त्वविज्ञानवैराग्यरुद्धचित्तस्य खानि मे ।
न मृतानि न जीवन्ति न सुप्तानि न जाग्रति ॥' हमारी इन्द्रियां साधना के द्वारा ऐसी हो जाएं कि न वे मृत हों और न जागृत। मृत इसलिए नहीं कि उनमें विषय-ग्रहण की शक्ति है। जीवित इसलिए नहीं कि उस समय विषय-आसक्ति नहीं है। सुप्त इसलिए नहीं कि विषय के अग्रहण में निद्रा जैसी परवशता नहीं है। जागृत इसलिए नहीं कि वे विषयों की ओर व्याप्त नहीं होती।
इन्द्रिय और आत्मा के बीच में मन है। मन बाहर जाता है, इन्द्रियाँ बहिर्मुखी हो जाती हैं और वह भीतर जाता है, इन्द्रियां अन्तर्मुखी हो जाती हैं। मन पर बाह्य संघर्षों का प्रभाव होता है, इसलिए हमने उन पर भी विचार किया है।
मन को कौन प्रभावित नहीं करता? यह सौर-जगत, वनस्पति-जगत्, प्राणी जगत्, परमाणु-जगत्-सभी मन को प्रभावित कर रहे हैं। योग के आचार्यों ने इस विषय का विशद विवेचन किया है।
मन बाह्य आकर्षणों और विकर्षणों से जड़ा है। अभी देख रहा हं. कहीं से कोई स्पर्श नहीं हो रहा है। किन्तु सच यह है कि असंख्य परमाणु स्पृष्ट हो रहे हैं, आ रहे हैं, जा रहे हैं। एक अमेरिकन महिला डॉ. जे. सी. ट्रस्ट ने अणु-आभा के फोटो लिये। आणविक प्रभाव को देखते हुए यह कहना बहुत सरल नहीं है कि मैं स्वतंत्र बुद्धि से सोच रहा हूं। हर व्यक्ति बाह्य परिस्थिति और निमित्तों से बंधा हुआ है। आज कोई भी शरीरधारी, जो इस जीवमण्डल और वायुमण्डल में जी रहा है, सार्वभौम स्वतंत्र नहीं है। जो कोई विचार निष्पन्न होता है, वह अनेक
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