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२०६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
से बच जाता है।
अनुकूलता का वियोग, प्रतिकूलता का संयोग, असहायता की अनुभूति, संघर्ष, सन्देह, भय, द्वेष, ईर्ष्या, क्रूरता, क्रोध और निराशा-ये सब मन में असन्तुलन उत्पन्न करते हैं। असन्तुलित मन में अशान्ति उत्पन्न होती है। वह सुख को लील जाती है। भावना, शान्ति और सुख में कार्य-कारण का सम्बन्ध है। गीता में लिखा है-'न चाभावयतः शान्तिः, अशान्तस्य कुतः सुखम्?' ___भावना के बिना शान्ति नहीं होती, शान्ति के बिना कुछ नहीं होता। भावना संस्कार-परिवर्तन की पद्धति है। ध्येय के अनुकूल बार-बार मनन, चिन्तन और अभ्यास करने पर पूर्व-संस्कार का विलोप और नये संस्कार का निर्माण हो जाता है।
अशान्ति के हेतुभूत संस्कारों का विलयन किए बिना कोई भी व्यक्ति शान्ति का स्पर्श नहीं कर सकता। परिस्थिति सदा एकरूप नहीं रहती। कभी वह अनुकूल होती है और कभी प्रतिकूल हो जाती है। अनुकूलता में जिसे हर्ष की तीव्र अनुभूति होती है, वह प्रतिकूलता में शोक की तीव्र वेदना से बच नहीं सकता। अपनी चेतना और पुरुषार्थ को सत्य की अनुभूति में प्रतिष्ठित करने वाला व्यक्ति परिस्थिति से आहत नहीं होता। असत्य का चुम्बकीय आकर्षण परिस्थिति के प्रभाव को अपनी ओर खींच लेता है। सत्य में वह चुम्बकीय आकर्षण नहीं है, इसलिए परिस्थिति का प्रभाव उसकी ओर प्रभावित नहीं होता। अग्नि से बहुत सारी वस्तुएं जल जाती हैं पर अभाव नहीं जलता। परिस्थिति से वही मन जलता है, जो सत्य की भावना से प्रभावित नहीं है।
८ सर्वांगीण दृष्टिकोण
जीवन में सबसे प्राथमिक मूल्य मानसिक शान्ति का है। मानसिक शान्ति के बारे में समग्रता से किन्तु सहजता से चिन्तन होना चाहिए। जो योजनाकृत होता है, वह बहुत अच्छा नहीं होता। जो सहज भाव से निकले, वह स्वभाविक होता है। जो बुद्धिपूर्वक होता है, वह स्वाभाविक नहीं होता। वृक्ष अनित्य होता है क्योंकि वह कृत है। घट भी अनित्य
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