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३४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
है, अपरिहार्य अधीनता के आकाश में परिहार्य अधीनता का संगम। और स्वतन्त्रता का अर्थ है, केवल अपरिहार्य अधीनताओं का अवशेष। कोई कैसे कह सकता है कि आदमी को स्वतंत्रता प्रिय है, परतंत्रता प्रिय नहीं है? पैरों से चलना उतना प्रिय नहीं है, जितना प्रिय है दूसरों के सहारे चलना।
मैं देखता हूं कि दिल्ली के राजपथ कारों से भरे हैं और उनमें बैठे हजारों लोग इधर-उधर आ-जा रहे हैं। यदि वे घेरे की शक्ति से परिचित नहीं होते तो कारों में नहीं बैठते। वे जानते हैं कि अपने पैरों से चलने वाला घंटे में तीन-चार मील ही चल सकता है।
यदि मैं घेरे की शक्ति से परिचित नहीं होता तो परम्परा से नहीं जुड़ता। परम्परा, सम्प्रदाय, जाति और राष्ट्र-ये सब घेरे हैं, सीमा-बद्ध हैं। इनमें शक्ति नहीं होती तो ये कभी समाप्त हो जाते। पर ये जी रहे हैं और इसीलिए जी रहे हैं कि विद्युत् का प्रवाह बल्ब से घिर कर ही आलोक देता है। दृति से घिरा हुआ पवन जो कार्य कर सकता है, वह मुक्त आकाश में नहीं कर सकता। गोली में शक्ति तभी आती है, जब वह बन्दूक से दागी जाती है। बाण में शक्ति तभी आती है, जब वह धनुष से फेंका जाता है। . मनुष्य ने बन्धन का स्वीकार मूर्खतावश नहीं किया है। वह भाषा के बंधन से बंधा हुआ है, इसीलिए सोचता है और दूसरों तक पहुंचता है। वह इंद्रिय और मन से बंधा हुआ है, इसीलिए गतिशील है। वह भूख से बंधा हुआ है, इसीलिए कार्यरत है।
पर के प्रति व्याप्त होने के प्रेरक तत्त्व ये ही हैं-शरीर, भाषा, इन्द्रिय, मन और भूख। इनका प्रवृत्ति-क्षेत्र ही समाज है। स्व यदि स्व ही रहता तो मैं पूर्ण स्वतंत्र होता। जिसके पैर स्वस्थ हों, उसे बैसाखी की अपेक्षा नहीं होती। मेरी अपूर्णता ने भी मुझे सापेक्षता की ओर झुकाया है। मेरे वाच्य का निगमन यह है कि मैं अपूर्ण हूं, इसलिए सापेक्ष हूं, और सापेक्ष हूं, इसीलिए इस प्रश्न से आलोकित हूं, कि क्या मैं स्वतंत्र हूं? स्वतंत्र वह है जो ऊपर उठता है। परतंत्र वह है जो नीचे जाता है। लिप्त नीचे जाता है, निर्लेप ऊपर उठता है। हल्का ऊपर उठता है, भारी नीचे जाता है। तुम्बे पर मिट्टी के लेप चढ़ाए। वह जल
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