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प्रेम का विस्तार १८५
कर्म की मर्यादा भिन्न-भिन्न है । एक दरिद्र को देख धनी के मन में, महावीर के मन में और एक विचारक के मन में भिन्न-भिन्न प्रतिक्रिया होती है । धनी उसे दस रुपये दे सकता है, महावीर कुछ नहीं दे सकते ।
मोहन - सामने जैसी वस्तु हो, वैसी ही मनःस्थिति बन जाती होगी ? मुनिश्री - सामने अच्छा आदर्श है और अपना विचार अपवित्र है तो अनुराग प्राप्त नहीं होगा । मूर्ति के प्रति श्रद्धा न हो तो अनुराग प्राप्त नहीं होगा। मूर्ति अपने आप में न प्रेम बांटती है और न घृणा । हर निमित्त की यह स्थिति है ।
जैनेन्द्र- प्रेम में विवेक का स्थान नहीं है क्या?
मुनिश्री - विवेक से व्यवहार फलित होता है, प्रेम तो अखण्ड होना चाहिए। कोई मेरे साथ पांच प्रतिशत व्यवहार ठीक करता है और कोई दस प्रतिशत। प्रेम भी उसी अनुपात से हो तो वह खण्डित हो जाएगा । जैनेन्द्र-पर-सापेक्षता प्रेम के लिए संगत है।
मुनिश्री - विस्तार की प्रक्रिया क्या हो, यह सहज ही प्रश्न हो सकता है । विस्तार का पहला सूत्र है - विचार की स्पष्टता या सम्यक् दर्शन । दूसरा सूत्र है - संकल्प का उपयोग । संकल्प की भाषा निश्चित और समय दीर्घ होना चाहिए। उतना दीर्घ कि उसे दोहराते - दोहराते उसमें तन्मयता आ जाए । भाषा का आकार एक होने से उत्तरोत्तर स्पष्टता आती है । आज कुछ, कल कुछ, परसों कुछ इस प्रकार भाव - भाषा भिन्न होने से धारणा भिन्न-भिन्न बनेगी। हमारी पहचान निश्चित आकार से ही होती है। एक आकार होने से धारणा में दृढ़ता आती है । भाषा, भाव, स्थान और समय की निश्चितता अवश्य प्रभाव लाती है ।
जैनेन्द्र-संकल्प में कर्तृत्व सहायक नहीं, बाधक बनता है । 'मैं प्रेम का हूं', 'मैं प्रेम कां हूं' - इसमें महत्त्व प्रेम को मिलेगा । “मेरा प्रेम बढ़ रहा है' इसमें जो कर्तृत्व है, वह अन्त में बाधक बन जाएगा । कर्तृत्व अपने पास न रहे तो क्षमता का विस्तार हो सकता है। भजन में प्रणिपात की भावना से तृप्ति मिलती है । वही सब है, मैं शून्य हो जाऊं। इसमें आत्म-गुणता, तत्समता का रास्ता सरल हो जाता है । मैं सब बनने में हाथ फैलाता हूं ।
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