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१८४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
नहीं है, फिर भी प्रिय है। एक वस्तु सुन्दर है पर प्रिय नहीं है। एक वस्तु सुन्दर भी है और प्रिय भी है। एक वस्तु सुन्दर भी नहीं है और प्रिय भी नहीं है। सुन्दरता और प्रियता की नितान्त घनिष्ठता नहीं है।
जैनेन्द्र-सुन्दरता दृष्टि से स्वतन्त्र चीज है क्या? उसका स्वतन्त्र अस्तित्व है क्या?
मुनिश्री-सुन्दरता संस्थानगत और रूपगत होती है। प्रियता मनोगत होती है। कड़वी के कड़वी चीज भी मनोगत हो सकती है पर मधुर नहीं। अमुक स्त्री सुन्दर है पर पति के मन को नहीं भाती। वह क्यों? उसके प्रति प्रियता का मनोभाव नहीं हुआ। प्रियता जहां जुड़ती है वहां घृणा नहीं रहती। मन में प्रेम का विस्तार हो तो सामने वाली वस्तु गौण हो जाएगी कि वह मनोरम है या मनोरम नहीं है। प्रेम का विस्तार सबको समा लेता है, वह 'प्रति' पर निर्भर नहीं होता, अपने पर निर्भर होता है। 'प्रति' का अर्थ किसी के प्रति नहीं यानी सबके प्रति। प्रेम सम्बन्ध का विस्तार नहीं, आत्मगुण का विस्तार है।
जैनेन्द्र-आत्म-विस्तार में शायद तारतम्य का अवकाश नहीं देखते हैं?
मोहन-किसी के चार लड़के हैं। चारों के साथ लेन-देन में हल्का-भारी व्यवहार होता है, यह क्यों?
जैनेन्द्र-उस भेद का भी अवकाश है। चारों में मोह-राग के कारण भेद नहीं है। विवेककृत है। आत्म-गुण के विस्तार में विवेक का तारतम्य डूबता नहीं है, सबकी समानता नहीं होती। __मुनिश्री-एक साधु ने वेश्या के घर चातुर्मास करने की आज्ञा मांगी। गुरु ने स्थूलिभद्र को वहां जाने की आज्ञा दी थी पर उसे नहीं दी। आज्ञा नहीं दी, उसके पीछे प्रेम ही था। भले आप उसे विवेक कह लें। वहां जाना उसके हित में नहीं था इसलिए उसे आज्ञा नहीं दी। मां चार वर्ष के बच्चे को चाबी नहीं देती, बड़ों को दे देती है। वहां प्रेम की कमी नहीं, विवेक है। प्रेम में अन्तर नहीं होता, फिर भी व्यवहार में भेद बुद्धि-कृत आता है। सामने वाले के बुरे व्यवहार के कारण प्रेम में अन्तर नहीं आएगा। विवेक में अन्तर इतना-सा आएगा कि उसे ऐसा काम नहीं सौंपे जिससे उसकी हानि हो। विवेक पर-सापेक्ष है, प्रेम पर-सापेक्ष नहीं है।
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