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________________ प्रेम का विस्तार १५३ रहा। सम्बन्ध रखने की स्थिति में यह बात लागू होती है। कोई व्यक्ति घर से निकलकर जंगल में चला जाता है तो उसकी स्थिति भिन्न हो जाती है। सम्बन्ध का दायित्व लेकर उसका पालन नहीं करता है, वह धार्मिक अपने व्यवहार से आसपास के अनेक लोगों को धर्म-विमुख बना देता है। अन्तरंग का वैराग्य घनीभूत हो जाए, वहां व्यवहार के प्रश्न समाप्त हो जाते हैं। २. प्रेम का विस्तार विस्तार यानी फैलना, 'स्व' की सीमा को लांघकर 'पर' की सीमा में प्रवेश पाना या 'स्व-पर' की सीमा का भेद विसर्जित करना। व्यापारी प्रसरण करते हैं-अप्राप्त काम-भोगों की प्राप्ति के लिए, अनुपलब्ध काम-भोगों की उपलब्धि के लिए। एक विस्तार ऐसा है जिसमें दोष प्राप्त होता है और एक विस्तार ऐसा है जिसमें दोष विसर्जित होता है। घृणा दोष है। व्यक्ति के मन में अपने प्रति उत्कर्ष का भाव होता है और दूसरे के प्रति हीन-भाव। वह भाव-भेद घृणा उत्पन्न करता है। अपने प्रति आकर्षण घनीभूत होता है, तो दूसरे के प्रति घृणा के सिवाय कुछ बच नहीं रहता। घृणा को मिटाने का सबसे अच्छा उपाय है प्रेम का इतना विस्तार कि जिसमें घृणा का अवकाश ही न रहे। एक व्यक्ति प्रिय है, दूसरा अप्रिय। प्रिय के प्रति प्रेम होता है, अप्रिय के प्रति जुगुप्सा। इस भूमिका में प्रेम की व्यापकता या सघनता नहीं है, इसलिए इसमें घृणा का अवकाश है। जहां घृणा है वहां द्वेष है। जहां द्वेष है वहां मानसिक अशान्ति है। घृणा हो और मानसिक अशान्ति न हो, ऐसा हो नहीं सकता। घृणा और मानसिक शान्ति दोनों साथ-साथ नहीं चल सकतीं। प्रश्न-क्या घृणित वस्तु से भी प्रेम करें? उत्तर-घृणा उस वस्तु में नहीं, अपने मन में है। विश्व के सारे के सारे पदार्थ सुन्दर बन जाएं, कभी सम्भव नहीं। स्थिति का द्वैध रहेगा। पर उसके आधार पर घृणा होना अनिवार्य नहीं है। हमें जो प्रिय है, क्या वह सुन्दर है? इसका उत्तर अनेकान्त की भाषा में मिलता है। एक वस्तु सुन्दर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
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