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२१० मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
आन्तरिकता पर भी। मैंने मानसिक शान्ति की चर्चा की।
ये सारे चिन्तन एकांगी हैं। जीवन का पक्ष एक ही नहीं है। मानसिक शान्ति की चर्चा हो, यदि रोटी न हो तो शान्ति नहीं मिलती। भूखा क्या पढ़ेगा? प्यास है, क्या वह साहित्य के रस से बुझ जाएगी? ___ एक रोगी स्वास्थ्य की कामना लिये चला। आयुर्वेदिक, होमियोपैथिक, ऐलोपैथिक, यूनानी, प्राकृतिक आदि चिकित्सकों के पास गया। सबने अपनी-अपनी पद्धति का महत्त्व बताया और दूसरी का खण्डन किया। मैंने कई प्राकृतिक चिकित्सकों को सुना है। वे जब ऐलोपैथी का खण्डन करते हैं तब उनकी आत्मा मुखर हो उठती है। मैं स्वयं प्राकृतिक चिकित्सा को महत्त्व देता हूं। लेकिन ऐकान्तिक आग्रह मुझे अच्छा नहीं लगता। शल्य-चिकित्सा में प्राकृतिक चिकित्सा क्या करेगी? आयुर्वेद वाले ऐलोपैथिक का खण्डन करते हैं। वे कहते हैं-ऐलोपैथी दवा रोग को एक बार दबा देती है, उसकी प्रतिक्रिया होती है, तब दूसरे रोग उभर आते हैं। आयुर्वेदी चिकित्सा में रोग को जड़ से मिटाने का प्रयत्न होता है और ऐलोपैथी में वर्तमान पर ध्यान दिया जाता है। दीर्घकालीन चिकित्सा में आयुर्वेद सक्षम है और तात्कालिक चिकित्सा में ऐलोपैथी भी। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन सारी दृष्टियों से देखने पर सत्य के निकट पहुंचा जा सकता है। एकांगी दृष्टि से सत्य का किनारा नहीं मिलता।
कई अध्यात्म पर बल देते हैं पर आसन, प्राणायाम आदि को अच्छा नहीं मानते। यह ऐकान्तिक आग्रह है। अमुक-अमुक रोग में आसन और प्राणायाम भी उपयोगी बनते हैं। एक भूमिका में धर्म साधन है और आवश्यक है पर मुक्ति-दशा में धर्म अनावश्यक बन जाता है। एकांगी आग्रह किसी भी क्षेत्र में ठीक नहीं। एक बात को त्रैकालिक मान पकड़ बैठने में कठिनाई होती है।
हमारे व्यवहार की भूमिका यह है कि हम न अप्रिय सत्य बोलें और न असत्य बोलें किन्तु पाक्षिक सत्य बोलें। इस विषय में मैं एक कहानी प्रस्तुत कर रहा हूं। एक बार एक राजा ने, जो कि काना था, चित्रकारों को आमंत्रित किया। उसने कहा-'मेरा चित्र सुन्दर होना चाहिए, सत्य होना चाहिए, किन्तु नग्न सत्य नहीं होना चाहिए।' एक लाख रुपये के
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