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सर्वांगीण दृष्टिकोण २०६ के एक निश्चित अंश पर बोल रहा हूं। अंश को पूर्ण मानते ही सत्य की हत्या हो जाती है।
ज्ञान अच्छा है। पर आप उसकी जकड़ में आ गए तो कर्मविमुखता प्राप्त होगी। इस कर्म-विमुखता की स्थिति का अनुभव हुआ, तभी यह कहना पड़ा-'दुर्भगाभरणमिव देहखेदावहमेव ज्ञानं स्वयमनाचरतः। ___'जो आचरण नहीं करता उसका ज्ञान विधवा के श्रृंगार के समान शरीर के लिए भारभूत ही होता है।'
क्षमा अच्छी है पर सर्वत्र उसकी अच्छाई मान्य नहीं हुई इसीलिए कहा गया-'क्षमा भूषणं यतीनां न भूपतीनाम्।' ।
सन्तोष अच्छा है। उसके समान सुख नहीं है पर सन्तोषी राजा अपना राज्य गंवा देता है : 'सन्तुष्टो राजा विनश्यति।
सन्तोषी व्यापारी भी नष्ट हो जाता है। __हर विचार अपनी भूमिका से आता है। उसी के सन्दर्भ में उसका मूल्यांकन होता है और होना चाहिए।
सत्य अनन्त है। कोई भी शब्द व भाषा उसके एक अंश को भी पूरा नहीं कर सकती। हम कहते हैं, सर्वज्ञ ने ऐसा कहा है। सर्वज्ञ जान सकता है पर कह तो नहीं सकता। इसीलिए कहा गया है कि प्रज्ञापनीय अनन्त है। वाणी का विषय उसका एक हिस्सा भी नहीं बनता।
तीन लोक के सारे द्रव्य-पर्यायों को जानने वाला भी एक द्रव्य के अनन्त पर्यायों में से हजार पर्यायों की भी व्याख्या नहीं कर सकता।
एक व्यक्ति जितना जानता है उतना ही ठीक है, या जो जानता है वही ठीक है, शेष नहीं-यह असत्य है। जो पहले जान लिया गया वही ठीक है, शेष नहीं, तो क्या पूर्वजों ने यह कभी कहा कि हमने पूरा सत्य कह दिया है, आगे के लिए दरवाजा बन्द है? यह मानना चाहिए कि जब तक संसार रहेगा, मनुष्य रहेगा, आत्मा की उपासना रहेगी, सत्य की खोज रहेगी, तब तक नयी-नयी उपलब्धियां होती रहेंगी। यह दृष्टि स्पष्ट रहेगी तो अपनी मानसिक शान्ति का भंग नहीं होगा।
दादा धर्माधिकारी ने आर्थिक उत्पादन और वितरण के पहलू पर प्रकाश डाला। जैनेन्द्रजी ने बाह्य परिस्थिति पर प्रकाश डाला, कभी-कभी
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