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व्रत की शक्ति
यदि कोई स्वार्थी होता तो कभी का भाग जाता । पर राजा भागा नहीं । उसने सिंह से कहा
क्षतात् किल त्रायत इत्युदग्रः, क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः । राज्येन किं तद् विपरीतवृत्तेः प्राणैरुपक्रोशमलीमसैर्वा ॥
- मैं क्षत्रिय हूं । क्षत्रिय कुल में जन्मा हूं । क्षत्रिय का कर्तव्य है कि जो कष्ट में पड़ा हो, उसकी रक्षा करे। यदि मैं ऐसा नहीं करता हूं तो मुझे राज्य और अपने प्राणों से क्या प्रयोजन?
राजा प्राणों की बलि देने को तैयार था । वह दण्ड-शक्ति की प्रेरणा नहीं थी, अपितु भीतर से आलोक आ रहा था और उसे कर्तव्य का बोध दे रहा था । कर्तव्य-बोध से आगे आत्मिक-बोध की सत्ता है । व्रत में बाह्य दबाव या विवशता नहीं होती, आन्तरिक चेतना उबुद्ध होती है, इससे व्यक्ति अकर्तव्य कर नहीं सकता ।
ढाई हजार वर्ष पहले मगध का शासन सम्राट् श्रेणिक के हाथों में था। वहां कालसौकरिक कसाई रहता था । वह प्रतिदिन पांच सौ भैंसें मारता था। कसाई के पुत्र का नाम सुलस था । वह पिता से विपरीत वृत्ति का था । कालसौकरिक का देहावसान हुआ । कौटुम्बिक उत्तराधिकार सौंपने का समय आया । उत्तराधिकारी को उत्तराधिकार लेने से पूर्व एक भैंसे की बलि देनी होती है । सुलस ने कहा - यह मुझे मान्य नहीं है । मैं ऐसा नहीं कर सकता । परिवार की ओर से दबाव डाला गया तो सुलस ने स्वीकार कर लिया। भैंसा सामने खड़ा है। परिवार के लोग अभिषेक करने के लिए सज्जित हैं। सुलस के हाथ में तलवार दी गई और कहा - भैंसे को मारो । जिस व्यक्ति की चेतना जाग्रत हो गई, स्वाभाविक व्रत का उदय हो गया, वह ऐसा काम कैसे कर सकता है? सुलस ने तलवार चलाई - भैंसे पर नहीं, पर अपने पैरों पर ।
लोग कहने लगे - इतना कायर आदमी इस उत्तराधिकार के योग्य नहीं है। उसे अयोग्य घोषित कर दिया गया ।
उसने ऐसा क्यों किया? इसलिए किया कि उसके मानस में व्रत था। जिसके मानस में व्रत का उदय हो जाए, उससे अन्याय नहीं हो सकता । जिससे मानस में व्रत का उदय नहीं होता, वहां दण्ड-शक्ति
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