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६५ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
आती है। जहां दण्ड-शक्ति आती है, वहां व्यक्ति बाहर से नियन्त्रित किन्तु अन्तर् में उच्छृखल बन जाता है। व्रत व्यक्ति की स्वतन्त्र चेतना का प्रतिफलन है। जीवन में व्रतों का आरोपण करना धर्म का उदय है। वह धार्मिक नहीं है, जिसके जीवन में व्रतों का आरोपण नहीं है। व्रत सामाजिक, राष्ट्रीय और व्यक्ति-चेतना का उदात्त स्वर है। चेतना में जो सुषुप्त शक्ति है, उसे जागृत करने से व्यक्ति का उदय होगा, समाज में व्रत की प्रतिष्ठा होगी और धार्मिकता जागृत होगी। यदि ऐसा हुआ तो जो बन्द खिड़की है, उससे आलोक प्रवाहित होता रहेगा।
१५. घेरे की शक्ति
व्रत जीवन को सीमित करता है। विकास का अर्थ है, विस्तार है। फीते को तानने के लिए आकाश चाहिए। विकास देश-काल में ही हो सकता है। देश और काल के बिना किसी वस्तु की व्याख्या नहीं हो सकती । व्रत और विकास देखने में एक-दूसरे के विरोधी लगते हैं पर मैं देखता हूं, विरोध वास्तविक नहीं है। विरोध मनुष्य की दृष्टि में ज्ञान और कल्पना में है। संसार में ऐसा कोई तत्त्व नहीं है जिसमें सहअस्तित्व नहीं हो। वस्तुसत्ता में विरोध नहीं है, विरोध है व्यक्ति की दृष्टि में। यदि दृष्टि में सापेक्षता आ जाए तो विरोध कहीं नहीं है।
मेरे विचार में विकास सीमा में अधिक होता है। एक व्यक्ति पैरों से पन्द्रह-सत्रह मिनट में एक मील चलता है। यदि गति तेज हो तो दस-बारह मिनट में एक मील चल सकता है। राजस्थान से अहमदाबाद आने में आचार्यश्री को चार मास लगे हैं। आप वायुयान से दो घंटे में आ सकते हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि वायुयान गति-शक्ति का एक घेरा है। यदि वाययान का घेरा न हो तो इतनी शीघ्रता से नहीं आया जा सकता। जो घेरे को तोड़ विकास चाहते हैं, वे अपने को समाप्त कर देते हैं। मैं देखता हूं कि मोटरकार में बैठा व्यक्ति पचास मील की गति से दौड़ा जा रहा है। क्या खुले पैरों से वह इतना दौड़ सकता है?
प्रश्न होता है, क्या हम संकीर्णता को स्थान दें? इस प्रश्न पर सापेक्ष-दृष्टि से विचार करें। संकीर्णता एकान्ततः दोषपूर्ण नहीं है। हम
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