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क्षमा हुर्द
बहुत बार हर बात को संकीर्ण कहकर टाल देते हैं। पर सीमा और संकीर्णता की मर्यादा को समझना आवश्यक है ।
१६. क्षमा
एक संस्कृत - कवि कहता है - मुझे वह वस्तु बताओ जो दूध की तुलना कर सके । दूध पवित्र है, सहज मधुर है । उसे तपाया गया, विकृत किया गया, मथा गया, फिर भी वह स्नेह देता है
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स्नेह वही दे सकता है, जो प्रकृति से महान् है । स्नेह वही दे सकता है, जो समर्थ है। लघु और असमर्थ इसलिए लघु और असमर्थ होता है कि उसमें स्नेह देने की क्षमता नहीं होती । लक्ष्मण ने सुग्रीव से कठोर वचन के लिए क्षमा मांगी - ' मया त्वं परुषाण्युक्तः, तत् क्षमस्व सखे!
मम ।'
लक्ष्मण असमर्थ नहीं थे । वह स्नेह की शून्यता को स्नेह से भर सकते थे, इसीलिए उनके मुंह में क्षमा का स्वर था ।
सिन्धु- सौवीर के अधिपति उद्रायण ने उज्जयिनीपति चण्डप्रद्योत से क्षमा मांगी। एक था बन्दी और दूसरा था बन्दी बनाने वाला । एक था पराजित और दूसरा विजेता । उद्रायण ने कहा, “महाराज प्रद्योत ! आज सम्वत्सरी का दिन है । यह मैत्री का महान् पर्व है । इस अवसर पर मैं तुम्हें हृदय से क्षमा करता हूं। तुम मुझे हृदय से क्षमा करो ।”
महावीर का मानना था कि एक छोटा हो और दूसरा बड़ा, उनमें मैत्री नहीं हो सकती | मैत्री समानता के धरातल पर हो सकती है। क्षमा दे और ले नहीं, तो देने वाला बड़ा और नहीं देने वाला छोटा हो जाता है । उनमें मैत्री नहीं हो सकती। मैत्री उनमें हो सकती है, जो क्षमा दे और क्षमा ले ।
महाराज प्रद्योत ने कहा, “क्या कोई बन्दी क्षमा दे सकता है ?” उद्रायण आगे बढ़ा और प्रद्योत को मुक्त कर अपने बराबर बिठा लिया । दोनों हृदय स्नेह की श्रृंखला से बंध गए ।
स्नेह का धागा एक ओर अविच्छिन्न है । उसमें असंख्य दिलों को एक साथ बांधने की क्षमता है !
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