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१०० मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
उस दीप को बुझने में कितनी देर लगेगी, जिसमें स्नेह बच नहीं रहा है।
उस पुष्प को मुरझाने में कितनी देर लगेगी, जिसमें रस बच नहीं रहा है।
स्नेह जीवन के हिमालय का वह प्रपात है, जो गंगा-यमुना बन बहता है और धरती के कण-कण को अभिषिक्त, अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित करता है।
स्नेह जीवन के सूर्य का वह प्रकाश है जो गहन अन्धकार को भेदकर मानस की हर सतह को आलोक से भर देता है। जिसके जीवन की गहराई में स्नेह की सरिता प्रवाहित नहीं है, वह क्या क्षमा करेगा?
क्षमा का शब्दोच्चार क्षमा नहीं है। दुर्बलताओं तथा अल्पताओं को स्नेह की महान् धारा में विलीन करने की क्षमता जो है, वही क्षमा है। गंगा की धारा कितने गन्दे नालों को अपने में मिला पवित्र बना लेती है। यह क्षमता किसी नाले की धारा में नहीं हो सकती। क्षमा का अर्थ है स्नेह की असीमता, असीमता और इतनी असीमता कि जिसमें कोई भी भूल या कोई भी अपराध अपनी विशालता प्रदर्शित न कर सके। धर्म की आत्मा है स्नेह, प्रेम या मैत्री। जो रूखा है, वह कठोर है। कठोरता और धार्मिकता अग्नि और जल की भांति एक साथ नहीं रह सकतीं। जो चिकना है, वह कोमल है। कोमलता और अधार्मिकता अग्नि और जल की भांति एक साथ नहीं रह सकतीं।
क्या आप मुझे उन धर्मों को धर्म कहने की स्वीकृति देंगे, जो मनुष्य को मनुष्य के प्रति कठोर बना रहे हैं, मनुष्य को मनुष्य का शत्रु बना रहे हैं, मनुष्य के प्रति मनुष्य के मन में घृणा भर रहे हैं और अपनी सुरक्षा या विस्तार के लिए मनुष्य से मनुष्य की बलि मांग रहे हैं। जो धर्म आत्मा की पवित्र वेदी से हटकर जातीय परम्परा से एक-रस हो जाता है, वह स्नेह के बदले रूक्षता की धार बहाता है और एकत्व के बदले विभाजन को बल देता है। ऐसे धर्मों से मनुष्य-जाति बहुत त्रास पा चुकी है। अब उसे उसी धर्म की अपेक्षा है जिसके अन्तस्तल में स्नेह और वातावरण में क्षमा का अजस्र स्रोत बह रहा है।
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