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६२ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति ये धर्म के प्रासंगिक परिणाम हैं। इन्हें रोकना संभव नहीं है। क्या इस खतरे से बचने का कोई उपाय नहीं है? इस दुनिया में निरुपाय कुछ नहीं है। उपेय है तो उपाय अवश्य ही होगा। इस खतरे से बचने का उपाय है-मूल्यांकन का सही दृष्टिकोण। हर सम्प्रदाय की आचार-संहिता को धर्म की आचार-संहिता मानकर चल रहे हैं। सम्प्रदाय की आचार-संहिता में घृणा, तिरस्कार और संघर्ष के बीज मौजूद हैं। अपने से भिन्न सम्प्रदाय वाले को मिथ्यात्वी, नास्तिक, शैतान, दानव या काफिर कहा गया है। यही खतरा है। धर्म की आचार-संहिता में ऐसा नहीं हो सकता। उसकी यह भाषा ही नहीं है। उसकी भाषा अस्तित्व की भाषा है। उसमें स्व-पर या मेरा-तेरा जैसा शब्द गठित ही नहीं है। यही उस खतरे से बचने का उपाय है।
सम्प्रदाय की घोषण है-मेरी सीमा में आओ, अन्यथा तुम्हारी मुक्ति नहीं होगी। महावीर ने कहा-जो ऐसी घोषणा करता है, वह बांधता है, मुक्त नहीं करता। श्रीकृष्ण ने कहा-मेरी शरण में आओ, तुम मुक्त हो जाओगे। कृष्ण सत्य है। वह आत्मा है। वह परमात्मा है। सत्य की शरण में जाने वाला मुक्त होता है, बंधता नहीं है। महावीर ने धर्म को सम्प्रदायातीत बतलाया। उन्होंने कहा-दुःख-मुक्ति सम्प्रदाय में दीक्षित होने की अनिवार्यता नहीं है। उनके लिए आत्मस्थ होने की अनिवार्यता है। जो आत्मस्थ है, वह सम्प्रदाय में दीक्षित हुए बिना भी मुक्त हो सकता है। महावीर ऐसे व्यक्ति को 'अश्रुत्वा केवली' कहते हैं। आत्मस्थ व्यक्ति सम्प्रदाय में दीक्षित होकर भी मुक्त हो सकता है। ऐसे व्यक्ति को महावीर 'श्रुत्वा केवली' कहते हैं। इन दोनों में मुक्ति का अनुबंध सम्प्रदायातीत और सम्प्रदायगत अवस्था से नहीं है, किन्तु आत्मस्थता से है। जो आत्मस्थ है, वह सम्प्रदाय में हो या न हो, मुक्त हो सकता है। जो आत्मस्थ नहीं है, वह सम्प्रदाय में हो या न हो, मुक्त नहीं हो सकता। आत्मस्थता और मुक्ति की व्याप्ति है। सम्प्रदाय और मुक्ति की व्याप्ति नहीं है। धर्म सम्प्रदाय से ऊपर है, शुद्ध चैतन्य का अनुभव है, इसलिए सब देशों और सभी कालों में वह समान परिणाम उत्पन्न करता है। उसका परिणाम देश-कालातीत है, इसलिए वह वैज्ञानिक है।
महावीर के युग में धर्म था, दर्शन और योग नहीं था। दर्शन, ज्ञान
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