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धर्म : वैज्ञानिक या अवैज्ञानिक ६१ समेटे हुए है और वैसा नास्तिक आस्तिकता का दीप अपने भीतर संजोए हुए है।
हमने धर्म की कट्टरताएं पाल रखी हैं। जब विचार के साथ धर्म का गठ-बंधन होता है, तब कट्टरताएं पनपे बिना नहीं रह सकतीं। कुछ लोग मानते हैं कि जिस धर्म के साथ कट्टरता जुड़ी नहीं होती, उसका अस्तित्व टिक नहीं पाता। हमने धर्म को संगठन मान लिया, एक जाति का रूप दे दिया है। जो संगठन जाति के रूप में विकसित होता है, वह सत्य के प्रति उत्तरदायी नहीं हो सकता। धर्म और सत्य की व्याप्ति अनुभव के धरातल पर ही सिद्ध हो सकती है। सम्प्रदायों का विकास धर्म या चैतन्य के अनुभव के आधार पर नहीं हुआ है। वह विचार की भूमिका पर हुआ है। अनुभव व्यक्ति को जोड़ता नहीं है। वह संगठन नहीं बनाता। विचार में जोड़-तोड़ दोनों की क्षमता है। वह समान चिंतन के आधार पर व्यक्तियों को जोड़ता है, संगठन का निर्माण करता है। वहां संगठन होता है, जहां वह भी होता है जो धर्म को इष्ट नहीं है। धर्म के लिए संघर्ष हुए हैं। इतिहास ने धर्म को इसीलिए आलोच्य बनाया है कि उसके नाम पर रक्तपात हुआ है। हम इस भ्रान्ति को अभी पाले हए हैं कि सम्प्रदाय या संगठन के नाम पर होने वाले रक्तपात को धर्म के नाम पर होने वाले संघर्ष के रूप में मानते चले जा रहे हैं। धर्म की व्याख्याओं में काफी मतभेद है। उसकी आचार-संहिता भी एक नहीं है। किन्तु एक बात सब धर्मों में एक है। हर धर्म ने कहा-अपने भीतर देखो, अपने आपको देखो। धर्म का मूल . स्वरूप यही है। इसमें सब धर्म एकमत हैं। कोई भी धर्म इसे अस्वीकृत नहीं करता, इसका प्रबल समर्थन करता है। ‘अपने भीतर देखो', 'अपने आपको देखो'--इस प्रकार की घोषणा करने वाले धर्म से क्या संघर्ष के स्फुलिंग उछल सकते हैं? क्या रक्तपात संभव हो सकता है? यह संभव हुआ है धर्म को आधार बनाकर विकसित होने वाले सम्प्रदाय, संगठन या जाति से।
क्या धर्म के आधार पर सम्प्रदाय, संगठन या जाति का बनना खतरनाक है? निश्चित ही खतरनाक है। पर इस खतरे को रोका नहीं जा सकता। यह कब हो सकता है कि टीप जले और काजल न बने।
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