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६० मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
जानने के लिए प्रस्तुत किए जाते हैं।
धर्म अस्तित्व है। वस्तु का जो स्वभाव है, वह धर्म है। जिसने धर्म की यह परिभाषा की उसने धर्म के अन्तस्तल का साक्षात् किया था। आत्मा का स्वभाव चैतन्य है। चैतन्य का अनुभव ही धर्म है। अनुभव व्यक्तिगत होता है। विचार सामूहिक हो सकता है, किन्तु अनुभव सामूहिक नहीं हो सकता। विचार की परीक्षा की जा सकती है, अनुभव की परीक्षा नहीं की जा सकती। विचार भाषा में प्रस्फुटित होता है, अनुभव के प्रस्फुटन का कोई उपाय नहीं है। इस दशा में अनुभव को कसौटी पर नहीं कसा जा सकता। जो कसौटी पर नहीं कसा जा सकता, जिसे प्रयोगशाला में परीक्षणीय नहीं बनाया जा सकता, वह वैज्ञानिक नहीं हो सकता। इस अर्थ में धर्म वैज्ञानिक नहीं है। जिन व्यक्तियों ने चैतन्य का अनुभव किया है, जो अपने चैतन्य के प्रति जागरूक हैं, उन सबका फलितार्थ एक है। कोई भी देश और काल उसमें अन्तर नहीं डाल सकता। इस समान परिणाम की दृष्टि से धर्म वैज्ञानिक है।
हम अनुभव के धरातल पर उतरे बिना ही धर्म की वैज्ञानिकता और अवैज्ञानिकता की चर्चा करते हैं। हमारी धर्म के प्रति असफलता का यही सबसे बड़ा कारण है। विचार के धरातल पर तर्क और प्रतितर्क-दोनों चलते हैं। अनुभव के धरातल पर इनका कोई स्थान नहीं है। कोई तर्क के द्वारा धर्म की स्थापना करता है तो कोई उसका निरसन करता है। कोई अपने को आस्तिक मानता है तो कोई नास्तिक। जो कट्टर आस्तिक और कट्टर नास्तिक हैं, उनमें मुझे कोई भेद दिखाई नहीं देता। कट्टर आस्तिक नास्तिक का और कट्टर नास्तिक आस्तिक का खण्डन करने पर तुला हुआ है। सत्य की जिज्ञासा दोनों में नहीं है। उसकी खोज दोनों नहीं कर रहे हैं। वे केवल मानकर चल रहे हैं। दोनों ही अपने-अपने शास्त्रों की दुहाइयां देकर अपने आपको आश्वस्त कर रहे हैं। जिनमें सत्य की जिज्ञासा है, जो उसके खोजी हैं, वे आस्तिक हों या नास्तिक, उनमें मुझे कोई अन्तर दिखाई नहीं देता। कोई अस्तित्व को प्रधान मानकर नास्तित्व को नकार रहा है तो कोई नास्तित्व को प्रधान मानकर अस्तित्व को नकार रहा है। पर नास्तित्व की खोज का द्वार बन्द नहीं है, इसलिए वह आस्तिक नास्तिकता को अपने भीतर
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