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धर्म : वैज्ञानिक या अवैज्ञानिक ६३ और चारित्र-ये तीनों धर्म के अभिन्न अंग थे। ईसा पूर्व तीसरी-चौथी शती में दर्शन और योग स्वतंत्र रूप में विकसित होने लगे। ईसा की पांचवीं-छठी शती में दर्शन और योग मुख्य हो गए, धर्म गौण हो गया। वह केवल आचार रह गया। वह पंखहीन पंछी जैसा हो गया। उसके दर्शन और आन्तरिक साधना-ये दोनों पंख कट गए। धर्म क्रियाकाण्डों का पुलिन्दा हो गया, अवैज्ञानिक हो गया। ईसा की आठवीं शती में इसी वास्तविकता की ओर ध्यान आकर्षित होने लगा। आचार्य हरिभद्र ने अनुभव किया कि दर्शन और योग को धर्म से स्वतंत्र मानने का परिणाम हितकर नहीं होगा। उन्होंने लिखा-धर्म व्यक्ति को मुक्ति से जोड़ता है, इसलिए धर्म ही योग है। योग उससे भिन्न नहीं है। धर्म वस्तु का स्वभाव है। दर्शन वस्तुस्वभाव का विश्लेषण करता है, इसलिए दर्शन भी धर्म से भिन्न नहीं है। वास्तविकतावादी (निश्चयनय की गंभीरता को समझने वाले) जैन आचार्य यह कहते रहे-आत्मा को देखना ही दर्शन है। उसे जानना ही ज्ञान है। उसमें स्थित रहना ही चारित्र है। यह त्रिपुटी अभिन्न है और इस अभिन्न त्रिपुटी का नाम ही धर्म है। किन्तु व्यवहार के धरातल पर चलने वाले धार्मिकों ने इस सचाई को विकसित नहीं होने दिया। वे धर्म को केवल आचार-संहिता के रूप में प्रस्तुत कर सम्प्रदाय, संगठन और जाति के साथ उसका तादात्म्य स्थापित करते रहे। राज्यसंस्था और समाजसंस्था-दोनों धर्म के आधार पर संगठित होने लगीं। धर्म उनके केन्द्र में अवस्थित हो गया। उसे राज्याश्रय प्राप्त हुआ। धर्म राज्यधर्म हो गया। राजा की इच्छा ही धर्म का भाग्य बन गई। राजा ने जिस धर्म को माना, वह खुब फला-फूला। जिस पर उसकी भृकुटी तन गई उस धर्म का पौधा सूखने लगा। इसी प्रकार शक्तिशाली समाज द्वारा स्वीकृत धर्म व्यापक होने लगा और कमजोर वर्ग का धर्म मर्माहत होता गया। इस व्यवस्था में धर्म की अपनी शक्ति (चैतन्यानुभव, अन्तर्दर्शन) गौण होती गई। वह तंत्र-मंत्र, जादू-टोना जैसी यांत्रिक शक्तियों के सहारे जीने तथा राज्य और शक्तिशाली वर्ग की सत्ता के सहारे श्वास लेने लगा। उसकी अपनी प्राणशक्ति क्षीण हो गई। उसे कृत्रिम प्राण के सहारे जिलाने का प्रयत्न किया जाने लगा। फलतः वह स्वतः मृत और परतः अनुप्राणित हो
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