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________________ ८८ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति साथ हुआ है। उसने धर्म को भी एक रूप दिया है। यहीं से प्रतीकवाद चला। राष्ट्र अमूर्त है किन्तु झंडे के रूप में उसका प्रतीक बना लिया गया है। धर्म का मूर्त रूप मनुष्य ने संस्थान बना लिया। उपनिषद् में वर्णन आता है-“परमात्मा का अकेले मन नहीं लगा अतः द्वंद्व पैदा किया और आत्मा का विस्तार कर नाम और रूप के आधार पर सृष्टि पैदा की।” नाम और रूप का यही आकर्षण अमूर्त को मूर्त बनाता है। जैन, बौद्ध, इस्लाम, ईसाई, हिन्दू आदि सभी नाम हैं और उसकी संस्थाएं धर्म का रूप हैं। धर्म अमूर्त है, किन्तु नाम और रूप के द्वारा वह हमारे सामने आता है इसीलिए हर धर्म का अपना नाम और रूप है। लड़ाई इसी नाम और रूप के लिए हुई है। धर्म के लिए कभी भी युद्ध नहीं हुए। जैन धर्म में पन्द्रह प्रकार के सिद्ध माने गए हैं जिनमें स्व-लिंग-सिद्ध, अन्य-लिंग-सिद्ध और गृह-लिंग-सिद्ध-इन तीन सिद्धों का वर्णन भी मिलता है। जैन वेश में सिद्ध होने वाले स्व-लिंग-सिद्ध, अन्य किसी भी वेश में सिद्ध होने वाले अन्य-लिंग-सिद्ध और गृहस्थ के वेश में सिद्ध होने वाले गृह-लिंग-सिद्ध कहे गये हैं। इससे स्पष्ट है कि धर्म किसी सम्प्रदाय विशेष ही में बंधा हुआ नहीं है, क्योंकि सम्प्रदाय के वेश के अतिरिक्त गृहस्थ के वेश तक में भी सिद्ध होना सम्भव है। चूंकि धर्म हमारी आत्मा की पवित्रता है अतः आत्म-पवित्रता में किसी को मतभेद नहीं है, केवल क्रियाकाण्डों में भेद आता है। जैन-दर्शन के 'नैगमनय' में प्रश्नोत्तर है-'तुम कहां रहते हो? 'जम्बूद्वीप में।' 'जम्बूद्वीप में कहां रहते हो? 'भारतवर्ष में।' 'भारत में कहां रहते हो? 'अमुक राज्य में।' 'अमुक राज्य में कहां रहते हो? 'अमुक नगर में।' 'अमुक नगर में कहां रहते हो? 'अमुक मुहल्ले में।' 'अमुक मुहल्ले में कहां रहते हो? 'अमुक नम्बर के मकान में।' 'अमुक नम्बर के मकान के किस कमरे में रहते हो? 'अमुक कमरे में'। 'अमुक कमरे में सर्वत्र तो नहीं रहते होगे? अन्तिम निष्कर्ष निकलता है और जवाब मिलता है कि मैं आत्मप्रदेश में रहता हूं। वस्तुतः अपने स्वभाव में रहना धर्म है और स्वभाव से बाहर जाना अधर्म है। भगवान् महावीर ने चार विकल्प किए हैं : १. कोई व्यक्ति धर्म छोड़ता है, संस्थान नहीं छोड़ता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
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