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७८ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
१. शास्त्रों के प्रामाण्य से धर्म के अस्तित्व का निर्णय। २. केवल पारलौकिकता के आधार पर धर्म की प्रतिष्ठापना। ३. कर्मवाद या भाग्यवाद की एकांगी दृष्टि का समर्थन।
अहिंसा परम धर्म है, अपरिग्रह महान् धर्म है। ऐसा क्यों है? इसका उत्तर बहुत सरल है-उत्तराध्ययन-सूत्र में ऐसा लिखा है, गीता में ऐसा लिखा है, धम्मपद में ऐसा लिखा है। उन शास्त्रों में लिखा है, इसलिए अहिंसा और अपरिग्रह धर्म है। क्या हर धार्मिक को इसका अनुभव है कि अहिंसा और अपरिग्रह महान् धर्म हैं? यदि यह अनुभव है तो वह शास्त्र का प्रामाण्य दिए बिना ही अहिंसा और अपरिग्रह की अच्छाई प्रस्थापित कर सकता है। यदि उसे वैसा अनुभव नहीं है तो वह शास्त्र का प्रामाण्य प्रस्तुत करके भी उनसे स्वयं लाभान्वित नहीं हो सकता। आचार्य सिद्धसेन ने कहा है-'हेतु से अगम्य सूक्ष्म सत्य का समर्थन शास्त्र से और हेतुगम्य सत्य का समर्थन हेतुवाद से करना चाहिए। जो ऐसा करता है, वह सत्य का समीचीन व्याख्याता है। जो अहेतुगम्य के लिए हेतु का प्रयोग करता है और हेतुगम्य सत्य के लिए शास्त्र का प्रयोग करता है, वह सत्य का समीचीन व्याख्याता नहीं है।'
आचार्य सिद्धसेन ने उक्त प्रतिपादन तर्कवाद के प्रांगण में उपस्थित होकर किया था। मैं उसी तथ्य को अनुभववादी भाषा में पुनरावृत्त करना चाहता हूं कि सूक्ष्म सत्य का समर्थन शास्त्र से और आचरणीय सत्य का समर्थन अनुभव से करना चाहिए। जो ऐसा करता है, वह सत्य की समीचीन व्याख्या प्रस्तुत करता है। जो अनुभवगम्य सत्य की व्याख्या शास्त्रीय प्रामाण्य से करता है, वह प्रत्यक्ष पर परोक्ष का आवरण डाल देता है।
धर्म के साथ जैसे परलोक का प्रश्न जुड़ा हुआ है, वैसे इहलोक का प्रश्न जुड़ा हुआ नहीं है। धार्मिक व्यक्ति धर्म को जितना परलोक के संदर्भ से देखता है उतना इहलोक के संदर्भ में नहीं देखता। वह भविष्य का जितना मूल्य आंकता है उतना वर्तमान का नहीं आंकता। वह इस प्रसंग में 'दीर्घ पश्यत मा ह्रस्वं' की नीति को क्रियान्वित कर रहा है। धर्म के पारलौकिक संदर्भ में समस्याओं का समाधान ढूंढ़ना असम्यक् नहीं है किन्तु सामयिक समस्याओं के संदर्भ को भुलाकर केवल
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