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व्रत की शक्ति ६५ हैं, तब धर्म और धार्मिक निस्तेज बनता है। जब-जब यम प्रथम और नियम द्वयम् होते हैं, तब-तब धर्म और धार्मिक का तेज बढ़ता है।
आज धर्म की शक्ति इसलिए क्षीण-सी प्रतीत हो रही है कि उसमें यम की अनिवार्यता समाप्त हो गई है, नियम अनिवार्य बन गए हैं। एक आचार्य ने बहुत ही मार्मिक शब्दों में लिखा है
'यमान भीक्ष्णं सेवेत, न नित्यं नियमान् बुधः ।
यमान पतत्यकुर्वाणो, नियमान् केवलान् भजन् ॥' यमों का प्रतिदिन आचरण करो और नियमों का आचरण कभी-कभी। जो व्यक्ति यमों का प्रतिदिन आचरण नहीं करता, वह भटक जाता है और वह भी भटक जाता है, जो केवल नियमों का आचरण करता है। नैतिकता की विषम स्थिति के समीकरण का सूत्र है, यमों और नियमों का समंजस आचरण।
१४. व्रत की शक्ति
व्रत भारतीय संस्कृति का मेरुदण्ड रहा है। जिस समाज में संकल्प की शक्ति नहीं होती, वह समाज शिष्ट नहीं होता। संकल्प-शक्ति का विकास व्रत से होता है। इसीलिए व्रत सारे भारतीय जीवन का केन्द्र-बिन्दु है।
जितने भी तीर्थंकर और अवतार हुए हैं, उन सबने व्रत का प्रतिपादन किया है। ऐसा एक भी धर्म नहीं है जिसमें व्रत न हो। व्रत को केन्द्र मानकर व्यक्ति उसकी परिधि में घूमता है। कोल्हू का बैल दीखने में निकम्मा-सा लगता है। दिन भर चलकर भी एक फलाँग आगे नहीं बढ़ता। एक संकल्प के साथ घूमने वाला बैल तेल निकालने में योग देता है। इसमें गति का परिणाम संक्षेप होने पर भी शून्य नहीं है। गति का विस्तार हो और परिणाम कुछ भी न हो, वह असफलता होती है। किन्तु जहां परिणाम हो, वहां असफलता नहीं होती।
जहां आत्मानुशासन का विकास होता है, वहां छिपकर काम करने की भावना नहीं उठती। व्यक्ति में अपने निर्माण का विश्वास नहीं है,
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