SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामूहिकता के बीच तैरती अनेकता ३१ एकता व्यवहार और उपचार से ऊपर उठ जाती है। हम अनेक हैं, इसीलिए हमारे सम्मुख तुलादण्ड है, मापदण्ड है। एकता तौल और माप से ऊपर उठ जाती है। ___ हम व्यवहार की भूमिका में हैं, इसलिए कोई भी तुलातीत या मापातीत नहीं है। हमारे पास तौल-माप का कोई सर्वसाधारण तुलादण्ड और मापदण्ड भी नहीं है। हम अपने ही तुलादण्ड से दूसरों को तौलते हैं और अपने ही मापदण्ड से दूसरों को मापते हैं। इसी बिन्दु पर हमारी अनेकता अपना असली रूप प्रदर्शित करती है। मैं एक हूं, किन्तु अनेक लोगों के सम्पर्क में हूं, इसलिए अनेक चक्षुओं में मेरे अनेक प्रतिबिम्ब हैं। क्या मैं सचमुच अनेक हूं? मैं जानता हूं कि मैं अनेक नहीं हूं। मैं एक हूं और वस्तु-सत्य यह है कि मैं एक हूं। अनेकता का आरोपण मेरा अपना धर्म नहीं है, वह उनका है, जो अनेक हैं। हम अनेक हैं, इसीलिए हैं, इसीलिए मैं अपने ढंग से सोचता हूं और दूसरा व्यक्ति अपने ढंग से सोचता है। मैं उसके चिंतन में संदेह करता हूं और वह मेरे चिंतन में संदेह करता है। मैं उसकी कार्य-पद्धति में त्रुटि देखता हूँ और वह मेरी कार्य-पद्धति में त्रुटि देखता है। मैं उसे भोला या मूर्ख मानता हूं और वह मुझे भोला या मूर्ख मानता है। इस प्रकार हम एक समूह में रहते हुए भी अपनी अनेकता को सुरक्षित रखे हुए हैं। हमारी अनेकता का एक हेतु है व्यक्तित्व की स्वतंत्रता और दूसरा है अपरिचय। हम व्यक्तिशः स्वतंत्र हैं, वह स्थिति समापनीय नहीं है। समाप्य स्थिति यह है कि हमारा परस्पर अपरिचय न हो। मैं जिससे परिचित नहीं हूं, उसके प्रति मैं भ्रान्त नहीं हूं और वह मेरे प्रति भ्रान्त नहीं है। मैं जिसकी सतह से परिचित हूं, उसके प्रति मैं भ्रान्त हूं और मेरे प्रति वह भ्रान्त है। मैं जिसकी गहराई से परिचित हूं, उसके प्रति मैं भ्रान्त नहीं हूं और मेरे प्रति वह भ्रान्त नहीं है। सामाजिक जीवन में मैं दूसरे से भिन्न हूं, उसका प्रमुख हेतु अपरिचय-जनित भ्रान्ति है। सामाजिक एकता की क्रान्ति का मुख्य सूत्र होगा परिचय, निकट का परिचय अर्थात् अभ्रान्ति। _ क्या मैं दूसरे से परिचित हूं? क्या दूसरा मुझसे परिचित है? क्या मैं दूसरे से परिचित हो सकता हूं? क्या दूसरा मुझसे परिचित हो सकता है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy