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३० मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
आध्यात्मिक अस्तित्व दूसरे को आलोकित कर देता है किन्तु अपना आलोक दूसरे में आरोपित नहीं करता, जैसे एक प्रज्वलित दीप से दूसरा अप्रज्वलित दीप प्रज्वलित हो उठता है। हर मनुष्य में आध्यात्मिक आलोक है, और उतना ही है जितना कि महान् माने जाने वाले किसी व्यक्ति में है। ____ मैं देख रहा हूं अगरबत्ती जल रही है और सारा वातावरण सुगन्ध से भर गया है। अग्नि एक निमित्त है, जो अगरबत्ती की सुगन्ध को व्यक्त करती है। ऐसा ही कोई निमित्त पाकर व्यक्ति की सुगन्ध फूट पड़ती है और उसका वातावरण महक उठता है। पर यह सारा का सारा नितान्त वैयक्तिक है। ___ समाज की सत्ता मान लेने पर भी वैयक्तिकता को अमान्य करने में प्रमाद दिखाई देता है। समाज प्रवृत्ति-केन्द्र हो सकता है, किन्तु चैतन्य-केन्द्र नहीं हो सकता। वह हो सकता है व्यक्ति।
व्यक्ति समाजाभिमुख होकर शक्ति-स्फोट करता है और समाज व्यक्ति अभिमुख होकर उपयोगी बनता है। व्यक्ति और समाज की निरपेक्ष व्याख्या हमें सत्य से दूर ले जाती है।
१३. सामूहिकता के बीच तैरती अनेकता
जैसा मैं हूं वैसा ही दूसरा है, यह अस्तित्व की गहराई का स्वीकार है। व्यवहारनीति का स्वीकार यह है कि जैसा मैं हूं, वैसा दूसरा नहीं है और जैसा दूसरा है, वैसा मैं नहीं हूं। मेरी क्षमता के तार जैसे झंकृत हैं, दूसरे की क्षमता के तार वैसे झंकृत नहीं हैं और यह झंकार-भेद ही व्यक्ति का व्यक्तित्व है-सर्वथा स्वतंत्र और सर्वथा निजी।
हम संघीय जीवन जीते हैं। हम अनेक होकर एकता का प्रदर्शन करते हैं-एक साथ खाते-पीते हैं, उठते-बैठते हैं, बातचीत करते हैं, सुख-दुःख का विनिमय करते है, सहयोग और सहानुभूति का अभिनय करते हैं और इतना करने पर भी हम अनेक ही रहते हैं, एक नहीं हो पाते।
हम अनेक हैं, इसीलिए हमारे सम्मुख व्यवहार है, उपचार है।
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