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________________ ३२ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति पहले प्रश्न के उत्तर में मैं कह सकता हूं कि दूसरे व्यक्ति के नाम-रूप और स्थूल व्यवहारों का परिचय मुझे प्राप्त है। मेरे नाम-रूप और स्थूल व्यवहारों का परिचय उसे प्राप्त है। किन्तु मन की गहराइयों और उनमें उपजने वाले सूक्ष्म व्यवहारों से मैं भी परिचित नहीं हूं और वह भी नहीं है। एक-दूसरे से परिचित होने की सम्भवता को मैं स्वीकार करता हूं। यदि हम तीन आवर्तों का पार पा जाएं तो वह सम्भव है, मेरे लिए भी और दूसरे के लिए भी। अज्ञान पहला आवर्त्त है। कुछ विचारक कहते हैं-जानने से दुःख होता हैं मैं इस विचार का प्रतिवाद इस भाषा में नहीं करूंगा कि नहीं जानने से दुःख होता है। किन्तु इस भाषा में करूंगा कि नहीं जानना स्वयं दुःख है। दुःख की सत्ता नहीं जानने की सत्ता पर अवलम्बित है। जैसे ही नहीं जानने की स्थिति समाप्त होती है, वैसे ही दुःख की सत्ता समाप्त हो जाती है। दूसरा आवर्त सन्देह है। कुछ चाणक्य-पुत्र कहते हैं-दूसरों के प्रति सहसा विश्वास नहीं करना चाहिए। मेरे गुरु ने मुझे दूसरी तरह समझाया है। वह समझ है कि दूसरों के प्रति सहसा अविश्वास नहीं करना चाहिए। सन्देह, सन्देह और फिर सन्देह-इस शृंखला का कहीं भी अन्त नहीं है। सन्देह का अन्तिम उपचार विश्वास है। विश्वास में कहीं खतरा सम्भव हो सकता है, किन्तु अविश्वास स्वयं खतरा है। विश्वास के खतरे की सक्षम जागरूकता के द्वारा चिकित्सा की जा सकती है, किन्तु अविश्वास सर्वथा अचिकित्स्य है। ___ मोह तीसरा आवर्त्त है। कुछ दूरदर्शी लोग शठ के प्रति शठता का व्यवहार-इसी नीति-सूत्र में सारी सफलता को निहित देंखते हैं। शुद्ध व्यवहार से मनुष्य का हृदय-परिवर्तन किया जा सकता है, इनमें उन्हें विफलता के दर्शन होते हैं। मेरे गुरु ने मुझे सफलता का सूत्र दिया है- 'अशठ व्यवहार'-शठ और अशठ दोनों के प्रति। यह सूत्र विवेकहीन प्रतीत होता है। तिमिर और आलोक दोनों के प्रति समनीति क्या विवेक-सम्मत होगी? किन्तु मेरा गुरु-मंत्र बहुत उल्टा है। उसकी परिधि में तिमिर और आलोक दो हैं ही नहीं। हर तिमिर की गहराई में आलोक भरा है और हर आलोक तिमिर से आवृत है। मैं अशठ व्यवहार इसलिए करता हूं, जिससे गहराई में रहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
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