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अध्यात्म से विच्छिन्न धर्म का अर्थ अधर्म की विजय
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परिवर्तन के लिए हमारा लौकिक विज्ञान पर्याप्त है। उसके लिए हमें धर्म की शरण में जाने की कोई अपेक्षा नहीं है। प्रभु के नाम की माला जपने वाला किसी दिन माला नहीं जपता है तो उसे ऐसा प्रतीत होता है कि आज का दिन व्यर्थ चला गया। वह अनैतिक और अप्रामाणिक व्यवहार करता है, उसे ऐसी अनुभूति नहीं होती कि आज का दिन व्यर्थ चला गया। धर्म की समझ जीवन में परिवर्तन लाने के लिए नहीं है, किन्तु जीवनगत अशुद्धियों को यथावत् बनाए रखने के लिए है। धर्म का आचरण इसलिए नहीं हो रहा है कि जीवन-व्यवहार की बुराइयां मिट जाएं, किन्तु वह इसलिए हो रहा है कि बुराइयों से प्राप्त होने वाला दोष धुल जाए। एक आदमी आयुर्वेद-विशारद से कह रहा है कि मैं स्वाद-लोलुपता को छोड़ने में असमर्थ हूं। मुझे ऐसी औषधि दो, जिससे खूब खाऊं और बीमार न बनूं। क्या धार्मिक भी इसी भाषा में नहीं सोच रहा है? दो व्यक्तियों के बीच न्यायालय में मामला चल रहा है। दोनों उसे जीतने के लिए धर्म की आराधना करते हैं। जो झूठा है, वह क्या धर्म से अधर्म की, सत्य से असत्य की विजय नहीं चाहता? यदि चाहता है तो धर्म या सत्य में उसकी आस्था कहां है? उसने धर्म को अपनी स्वार्थ सिद्धि का साधन मात्र मान रखा है।
धर्म जब-जब कामना की पूर्ति का साधन बनता है, तब-तब उसके आसपास विकार घिर आते हैं। विकारों से घिरा हुआ धर्म भूत से भी अधिक भयंकर हो जाता है। भगवान् महावीर ने ऐसे धर्म के खतरे की स्पष्ट चेतावनी दी थी। उनकी वाणी है- 'कालकूट विष का पान,
अविधि से पकड़ा हुआ शस्त्र और सुरक्षा की विधि जाने बिना साधा हुआ वैताल जैसे खतरनाक होते हैं, वैसे ही विकारों से समापन्न धर्म खतरनाक होता है।' इस प्रकार खतरनाक धर्म को ही मार्क्स ने अफीम कहा था। अध्यात्म से अनुप्राणित धर्म अफीम या मादक नहीं होता।
अध्यात्म क्या है? स्वतन्त्रता की अनुभूति : इससे आकांक्षा के उत्ताप और बन्धन
टूट जाते हैं। पूर्णता की अनुभूति : इससे रिक्तताएं भर जाती हैं, शून्य
ठोस में बदल जाता है।
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