________________
७ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति अव्यक्त हो जाता है। किन्तु अव्यक्ति और अनस्तित्व एक नहीं है।
भौतिकवाद का विकास हो रहा है। लोग धर्म को भुलाते जा रहे हैं। मार्क्स ने कहा, धर्म अफीम है, मादक द्रव्य है। वह व्यक्ति में उन्माद पैदा करता है। इस दर्शन के आधार पर चलने वाले धर्म को विकास में सर्वोपरि बाधा मानते हैं। साम्यवादी देशों ने धर्म के उन्मूलन का प्रयत्न भी किया है। किन्तु यह सब धर्म के शरीर पर घटित हो रहा है। धर्म के शरीर को भुलाया जा सकता है, धर्म को नहीं भुलाया जा सकता। जिसके प्रति श्रद्धा होती है, वह मनुष्य के लिए मादक बन जाता है। राष्ट्रनिष्ठ लोगों के लिए क्या राष्ट्र मादक नहीं बनता? भाषानिष्ठ लोगों के लिए क्या भाषा मादक नहीं बनती? जाति, वर्ण आदि जो भी मानवीय उपकरण हैं, वे मनुष्य की श्रद्धा प्राप्त कर मादक बन जाते हैं। हम इस सचाई को क्यों अस्वीकार करें कि धर्म में मादकता है। प्रस्तुत प्रसंग में एक सत्य को अनावृत करना भी आवश्यक है। यह मादकता धर्म के शरीर में है, उसकी आत्मा में नहीं है। धर्म का शरीर है सम्प्रदाय और उसकी आत्मा है अध्यात्म। शरीर सहज ही प्राप्त हो जाता है। आत्मा की प्राप्ति साधना द्वारा होती है। आत्मा तक पहुंचने वाले धार्मिक बहुत कम होते हैं। अधिकांश धार्मिक शरीरसेवी होते हैं। वे साम्प्रदायिक मादकता से बच ही कैसे सकते हैं? जब अध्यात्म को विच्छिन्न कर मनुष्य धर्म-शरीर से चिपकते हैं, तब धर्म निष्प्राण हो जाता है। फिर आत्मानुशासन और व्यापक दृष्टिकोण समाप्त हो जाता है। धर्म कृत्रिम नियमों और संकीर्ण दृष्टिकोण का पुंज बन जाता है। वैसा धर्म सामाजिक परिवर्तन में बाधा डालता है। तब सामाजिक क्रान्ति करने वाले उसे सब रूढ़ियों को शरण देने वाला संस्थान मानकर उसके उन्मूलन का प्रयत्न करते हैं। ऐसे रूढ़ और अध्यात्म से विच्छिन्न धर्म-शरीर के प्रति हमारी कोई निष्ठा नहीं है। धर्म के क्षेत्र में बहुत बड़ी क्रान्ति अपेक्षित है। आचार्यश्री तुलसी ने अणुव्रत के माध्यम से इसे नेतृत्व दिया है और क्रान्ति के बीज बोए जा रहे हैं।
जन्म से मृत्यु-पर्यन्त धर्म करने वालों में व्यापक दृष्टि और मैत्री विकसित नहीं होती। इसका फलित है अध्यात्म की प्रतिष्ठा प्राप्त किए बिना धर्म हमारे जीवन में अलौकिक परिवर्तन नहीं ला सकता। लौकिक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org