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३६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
वह पकने के बाद दाने को मुक्त करने के लिए प्रस्तुत हो । फल को वृन्त की अधीनता मान्य हो सकती है, यदि वह पकने के बाद फल को मुक्त करने के लिए प्रस्तुत हो । इस संचर्चा के बाद मेरे मन पर वह प्रश्न नहीं उभर रहा है कि क्या मैं स्वतंत्र हूं ? किन्तु यह विश्वास उभर रहा है कि मैं स्वतंत्र होने के लिए परतंत्र हूं ।
१५. अहिंसा का आदि-बिन्दु
मैं अपने आपको अपूर्ण मानता हूं, फिर भी कोई व्यक्ति मेरी अपूर्णता की ओर इंगित करता है तो मेरी पूर्णता की आग प्रज्वलित हो उठती है । अपूर्णता की स्मृति क्षण भर के लिए लुप्त हो जाती है । मैं सोचता हूं, ऐसा क्यों होता है? शायद इसीलिए होता है कि इंगित करने वाला मेरी पूर्णता को लक्ष्य करके ही मेरी अपूर्णता की ओर इंगित करता है । उसके मन में एक चित्र मेरी पूर्णता का होता है और वह इंगित करता है मेरी अपूर्णता की ओर । वह मेरी अपूर्णता को लक्ष्य में रखकर उसकी ओर इंगित करे तो मुझे अपनी अपूर्णता की विस्मृति का क्षण न देखना पड़े ।
अहिंसा में मेरी आस्था है । यदा-कदा उसके प्रयोग भी करता हूं । किन्तु हिंसा के चिर संचित संस्कारों को चीरकर मैं अहिंसा की प्रतिष्ठा कर चुका हूं. यह मैं मानूं तो मेरा दम्भ होगा। मैं इतना ही मान सकता हूं कि मैं अहिंसा की दिशा में चल रहा हूं। कब तक कहां पहुंच पाऊंगा - यह प्रश्न केवल वर्तमान से ही जुड़ा होता तो मैं इसके उत्तर की रेखा खींच डालता किन्तु यह प्रश्न मेरे अतीत से जुड़ा हुआ है, इसलिए अहिंसा की दिशा में चल रहा हूं, इससे आगे कहने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है।
मेरे प्रिय आलोचक ! मैं इतना सा तुम्हें बता सकता हूं कि मैं रूढ़ नहीं हूं। मैं प्रवहमान जल को स्वच्छ मानता हूं और यह भी मानता हूं कि गढ़े में अवरुद्ध जल की स्वच्छता नष्ट हो जाती है ।
मैं जो हूं, वही रहूं और जैसा हूं, वैसा ही रहूं, इस मनोवृत्ति में मेरी कोई आस्था नहीं है और इसलिए नहीं है कि इसमें मैं हिंसा की पौध
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