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१६० मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
की लकीर में जैसे तरतमता है वैसे ही अपेक्षा में तरतमता होती है। जो अपेक्षा जल की लकीर की तरह होती है, वह आवश्यकता-भर है। जो बालू की लकीर के समान है, वह थोड़ी-सी अतृप्ति है। जो मिट्टी की लकीर के समान है, उसमें आकांक्षा की मात्रा बढ़ जाती है। जो पत्थर की लकीर के समान है, उसमें आवश्यकता गौण हो जाती है और वह आकांक्षा अनन्तानुबंधी बन जाती है। अतृप्ति को तृप्त करने के प्रयत्न से तृप्ति नहीं होती परन्तु अतृप्ति बढ़ जाती है, एक के बाद दूसरी अतृप्ति उभर आती है। तर्कशास्त्र में इसे अनवस्था कहा जाता है। एक कपड़े को साफ रखने के लिए उस पर खोली चढ़ाते हैं। उसे साफ रखने के लिए उस पर दूसरी, दूसरी को साफ रखने के लिए तीसरी, चौथी और पांचवीं-इस प्रकार क्रम बढ़ता ही जाता है। अतृप्ति का कहीं अन्त नहीं आता। अनवस्था का यही स्वरूप है।
कुटिलता- कुटिलता ग्रन्थिपात का एक चरण है। माया अर्थात् ग्रन्थिपात, आर्जव यानी ग्रन्थि-मोक्ष। ऋजु व्यवहार के पहले, पीछे और वर्तमान में मानसिक जटिलता नहीं होती, इसलिए उसमें ग्रन्थिपात का अवसर नहीं आता। कुटिल व्यवहार में पहले, पीछे और वर्तमान में मानसिक जटिलता होती है, इसलिए उस स्थिति में ग्रन्थियां पड़ती हैं।
ग्रन्थि-मोक्ष की तीन पद्धतियां हैं-(क) आत्मविश्लेषण की, (ख) निर्देशन, (ग) निरसन।
आत्म-विश्लेषण की पद्धति मनोवैज्ञानिक है। आत्म-विश्लेषण प्राच्य भाषा में प्रायश्चित्त है। जो अकृत हो जाता है, उससे मन में द्वन्द्व होता है, उससे मन में ग्रन्थि घुलती है। आत्म-विश्लेषण या प्रायश्चित्त से वह खुलती है।
निर्देशन-इसका अर्थ है, स्वतः सूचना। यह भारतीय योग की प्रक्रिया है। इससे मानसिक स्वभाव में परिवर्तन आता है। स्वतः सूचना से मानसिक ग्रन्थि टूट जाती है। पूरक (श्वास को भीतर लेते समय) काल में निष्ठा के साथ निर्देश देने से बहुत बड़ा लाभ होता है। सोते समय निर्देश देना भी शीघ्र फलदायी होता है। इस विधि से दिए गए निर्देश तीन मिनट में रक्त के साथ सारे शरीर में व्याप्त हो जाते हैं। श्वास को लम्बाना आवश्यक है। निर्देश से दुरभिसन्धि भी मिट जाती है।
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