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सत्-व्यवहार १७७
राजेन्द्र-चित्त को स्वीकार न करने में क्या कठिनाई है?
मुनिश्री-कठिनाई कोई नहीं, उसे न मानना स्वाभाविक है। उसे मानने में पराक्रम की आवश्यकता है। जो दृश्य है, वह चित्त नहीं है। इसलिए आस्तिक की अपेक्षा नास्तिक होना अधिक सरल है।
जैनेन्द्र-आस्तिकता ऐसी चीज है, जो घर में पैदा होने से ही आ जाती है। नास्तिकता बुद्धि के प्रयोग से होती है। मैं पहले आस्तिक था, फिर बहुत वर्षों तक अपने को नास्तिक कहता था। अब मानने लगा हूं आस्तिक हूं। पहली आस्तिकता जल्दी टूट गई। ____ मुनिश्री-यह आस्तिकता पुरुषार्थ से आयी। मन, इन्द्रिय, बुद्धि, शरीर आदि जो साधन हैं, आत्मा के अस्तित्व की जानकारी के प्रत्यक्ष सहायक नहीं हैं। डॉक्टर अणु-अणु को बिखेर देता है पर शरीर में कहीं भी चित्त नहीं मिलता। इसीलिए मैं कह रहा था चित्त को मानना आश्चर्य है।
जैनेन्द्र-स्वीकार करता हूं, कुछ है पर चित्त नहीं है।
मुनिश्री-चेतना की निष्पत्ति मानते हैं, अनुस्यूत चेतना नहीं मानते। त्रैकालिक चेतना का स्वीकार बहुलांश में आस्था के बल पर माना जाता है। बुद्धि के बल पर माना जाए तो वह दो वकीलों के वाद-विवाद का-सा रूप हो जाता है, हाथ कुछ नहीं आता। आस्था, अनुभूति और ध्यान का पक्ष प्रबल हो जाए तो फिर चित्त के अस्वीकार में कठिनाई होगी।
राजेन्द्र-शरीर के बिना चैतन्य का कोई अस्तित्व है? .. जैनेन्द्र-प्रेत है। प्रेत यानी शरीर-मुक्त चित्त। .. राजेन्द्र-प्रेत या तो है नहीं और है तो शरीर-मुक्त नहीं।
मुनिश्री-विद्युत् में प्रकाश की शक्ति है पर उसकी अभिव्यक्ति बल्ब में होती है। वैसे ही चित्त की अभिव्यक्ति शरीर में होती है।
राजेन्द्र-विद्युत् को प्राथमिकता देते हैं, बल्ब को क्यों नहीं देते?
मुनिश्री-विद्युत् आगत है, बल्ब में निष्पन्न नहीं। इसी प्रकार शरीर में चेतना निष्पन्न नहीं, अनुस्यूत है।
राजेन्द्र-चित्त को शरीर से भिन्न जानने की वैज्ञानिक पद्धति क्या है? जैनेन्द्र-शरीर से भिन्नता का पीछा करना आपको क्यों आवश्यक है? मुनिश्री-आपके पास प्रयोगशाला है। आप शरीर के कण-कण की
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