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२१४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
उन्हें देख धर्म के प्रति अरुचि-सी हो गई थी। वह धार्मिक क्या जो व्यवहार का लोप करे! यहां रहकर साधना की और साधना के बारे में विचार बदले। जीवन में परिवर्तन आया। ज्योंहीं धर्म-आचरण के साथ व्यवहार के प्रति सजग हुआ, साधना को हर व्यवहार में उतारने का यत्न किया तो आसपास का वातावरण प्रसन्न हो गया।
यदि जीवन में मानवीय व्यवहार का प्रतिबिम्ब न हो, विचारों में स्पष्टता न हो, मिथ्या दृष्टिकोण हो और हम कल्पना करें, कि ध्यान होगा, कैसे होगा? साधना को एकांगी या विभक्त मानकर चलें तो वह सही है। उपवास, ध्यान, मौन-ये साधन हैं। साधन और सिद्धि का जितना व्यवधान कम होगा, उतनी ही साधना सफल होगी।
स्थितप्रज्ञ सारे दिन बोलता है, फिर भी वह मौन है। क्रोध या लड़ाई से मुंह सुजाकर बैठ जाना क्या मौन है? यदि है तब तो बगुला भी ध्यानी हो जाएगा। इसी भ्रम में राम ने बगुले की प्रशंसा की थी
‘पश्य लक्ष्मण! पंपायां, बकः परमधार्मिकः ।
दृष्ट्वा दृष्ट्वा पदं धत्ते, जीवानां वधशंकया ॥' राम की बात सुन एक मछली बोली
'बकः किं शस्यते राम!, येनाहं निष्कुलीकृतः ।
सहचारी विजानीयात्, चरित्रं सहचारिणाम् ॥' बहू रूठकर घर के कोने में बैठ गई। कुछ नहीं खाया। क्या उसे उपवास मानेंगे? कुछ नहीं करना ही साधना नहीं है और कुछ करना ही असाधना नहीं है। साधना वह है, जहां आन्तरिक जागरूकता हो, भले फिर प्रवृत्ति हो या निवृत्ति।
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