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२८ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
वह सुलीन भूमिका है। पतंजलि ने इसका कुछ भिन्नता से प्रतिपादन किया है।
विक्षेप में मन का उतार-चढ़ाव रहता है, वहां आनन्द नहीं है। यातायात में एक प्रकार के थोड़े-से आनन्द का अनुभव होता है जो भौतिकता में नहीं मिलता। श्लिष्ट में बहु-आनन्द मिलता है। सुलीन की भूमिका में बहुतर यानी परमानन्द की अनुभूति होती है।
कुछ लोग पदार्थों में सुख और आनन्द की कल्पना करते हैं। वास्तव में पदार्थ के बिना जो आत्मा में आनन्द की अनुभूति होती है वह पदार्थों से नहीं होती।
हमारे शरीर में दो ग्रन्थियां सटी हुई हैं-एक सुख की और एक दुःख की। सुख की ग्रन्थि को उत्तेजित करने पर अखण्ड सुख की अनुभूति होने लगती है। बाह्य परिस्थिति का दुःख उत्पन्न करने पर भी उसे दुःख की अनुभूति नहीं होती। दुःख की ग्रन्थि खुलने पर चारों ओर उसे दुःख ही दुःख दिखाई देता है।
हमारी साधना के द्वारा सुख की ग्रन्थि आहत हो जाती है। एक व्यक्ति ने बताया कि जब मैं ध्यान करने बैठता हूं तो दो दिन तक बैठा रहता हूं। किसी स्थिति के कारण बीच में छोड़ना पड़ता है तो दुःख होता है। चोट-सी लगती है। . खाने में आनन्द आ सकता है पर बिना खाए-पीए भी आनन्द आ सकता है, यह कल्पना करना भी कठिन है। अन्तर हृदय में आनन्द का सागर हिलोरें ले रहा है, लेकिन अज्ञान के कारण हम आनन्द से वंचित रह जाते हैं।
१२. व्यक्ति और समाज
मेरे सामने एक पेड़ है और एक पत्र है, एक जलाशय है और एक मछली है; एक जलराशि है और एक जलकण है। पत्र पेड़ से उत्पन्न हआ है और उससे अलग होकर वह जी नहीं सकता। अतः उसका अस्तित्व पेड़ से भिन्न नहीं है। मछली जल से उत्पन्न नहीं है, किन्तु वह जल के बिना जी नहीं सकती, अतः उसका अस्तित्व जल से भिन्न
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