________________
१६४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
'संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथा पूर्वे सज्जानाना उपासते ॥' यह वैदिक मंत्र मुझे बहुत आकर्षक लगता है। जैन-सूत्रों में साधारण-शरीरी जीव का उल्लेख मिलता है। साधारण-शरीरी जीव यानी एक शरीर में अनन्त जीव। वे एक साथ जन्मते हैं, साथ में खाते हैं, साथ में सांस लेते हैं, साथ में सुख-दुःख की अनुभूति होती है और एक साथ मरते हैं। ऐसी साधाणता यदि मनुष्य में आ जाए तो विश्व का स्थित्यन्तर हो जाए। इस संभावना के निचले स्तर पर भी 'अमुक काम करने से दूसरों को क्लेश होगा' -इस अनुभूति का तार साधारण हो जाए तो समाज में क्रूर व्यवहार नहीं हो सकता। ___ जब तक यह स्थिति नहीं बनती है तब तक मानसिक अशान्ति के अनेक हेतु उपस्थित हो जाते हैं। बहुत बार हम एकांगी हो जाते हैं। कभी हेतु पर अटक जाते हैं, कभी उपादान तक चले जाते हैं। केवल हेतु और केवल उपादान की मर्यादा अपने आप में पूर्ण नहीं है। दोनों का योग होने से क्रिया निष्पन्न होती है। हेतु है, उपादान नहीं है तो कोई क्रिया निष्पन्न नहीं होगी। उपादान है, हेतु नहीं है तो भी कोई क्रिया निष्पन्न नहीं होगी।
प्राकृतिक चिकित्सा का सिद्धान्त है कि रोग का उपादान-विजातीय तत्त्व विद्यमान हैं तो बाहर से निमित्त मिलते ही रोग उभर आता है। विजातीय तत्त्व नहीं हैं तो बाह्य निमित्त मिलने पर भी रोग नहीं होता। रोग उभरने में उपादान और हेतु का योग होता है।
अहिंसा या दया का भाव हर व्यक्ति में होता है और घृणा का भाव भी हर व्यक्ति में होता है। निमित्त मिलने पर वे उभर आते हैं।
आज अणुव्रत के मंच से धर्म के प्रायोगिक स्वरूप या अहिंसक समाज-रचना की बात सोची जा रही है। इस संदर्भ में, मैं कहना चाहता हूं कि स्वार्थ की प्रबलता से जो चैतसिक मूर्छा आ गई है, उसे मिटाए बिना यानी सहानुभूति का विस्तार किए बिना शान्ति के द्वार खुल नहीं पाएंगे।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org