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सहिष्णुता १६५
५. सहिष्णुता
सहिष्णुता का अर्थ है-सहन करना। इसक दूसरा अर्थ है-शक्ति। दोनों अर्थों के योग से ही सहिष्णुता मनुष्य के लिए उपयोगी बनती है। शक्ति-शून्य सहिष्णुता परवशता हो सकती है, अपनी स्वतन्त्र चेतना की स्फूर्ति नहीं। जहां शक्ति के साथ सहिष्णुता होती है, वहां मानवीय स्पर्श होता है। उसमें न अहंभाव होता है और न हीनभाव। अहंभाव और हीनभाव विषमता है। इससे मानवीय अन्तःकरण का स्पर्श नहीं होता। स्पर्श समता में है। प्रकृति का वैषम्य मानवीय सम्बन्धों को विच्छिन्न करता है। एक का दूसरे के साथ सम्बन्ध तभी हो सकता है, जबकि दोनों ओर से साम्य हो, न हीनभाव हो और न अहंभाव हो। अध्यात्मयोग और क्या है? यह साम्य ही तो अध्यात्मयोग है। आचार्य सोमदेव सूरि ने आत्मा, मन, मरुत् और तत्त्व के समतापूर्ण सम्बन्ध को ही अध्यात्मयोग माना है- 'आत्ममनोमरुततत्त्वसमतायोगलक्षणोह्यध्यात्मयोगः'। सहिष्णुता अपेक्षित क्यों है? जितने मनुष्य हैं, वे रुचि, विचार, संस्कार व कार्य की दृष्टि से सम नहीं हैं। वे बाह्य आकार से एक-सम न हों तो कोई कठिनाई नहीं। पर रुचि आदि सम नहीं हों तो उसमें कठिनाई पैदा होती है। उस कठिनाई का निवारण सहिष्णुता के द्वारा ही किया जा सकता है। असहिष्णुता आते ही स्थिति गड़बड़ा जाती है। एक बार हाथ, जीभ, दांत, पैर आदि एकत्र हुए। सबने निर्णय किया कि हम सब काम करते हैं पर पेट कुछ नहीं करता। जो हमारे साथ श्रम न करे, योग न दे, उसका हमें सहयोग नहीं करना चाहिए। सबने हड़ताल कर दी। एक दिन बीता, दो दिन बीते। हाथों में सनसनी छा गई, जीभ का स्वाद बिगड़ गया, मुंह थूक से भर गया, दांतों में मैल जब गया, बदबू आने लगी। तीसरे दिन सब मिले और हड़ताल समाप्त कर दी।
हर व्यक्ति में रुचि का भेद होता है। शिविर में चालीस-पचास व्यक्ति हैं। प्रत्येक व्यक्ति की रुचि यदि भिन्न हो तो उसके अनुसार
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