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७६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
है। ध्यान की विशिष्ट भूमिका प्राप्त होने पर प्रेक्षा का द्वार अनायास उद्घाटित हो जाता है।
परीक्षा तर्कशास्त्रीय पद्धति है। उसका मुख्य आधार व्याप्ति है। जहां धुआं था वहां अग्नि थी-यह एक व्यक्ति ने देखा और अनेक व्यक्तियों ने देखा, सर्वदेश और सर्वकाल ने देखा, जहां देखा वहां ऐसा ही मिला। इसलिए धूम और अग्नि के साहचर्य का नियम बना लिया गया। इसी का नाम व्याप्ति है। इसके आधार पर हम दृष्ट साधन से अदृष्ट साध्य का ज्ञान कर लेते हैं-दृष्ट धूम के द्वारा अदृष्ट अग्नि को जान लेते हैं। - प्रयोग वैज्ञानिक पद्धति है। इस पद्धति में परीक्षा का भी उपयोग किया जाता है। किन्तु इसमें केवल परीक्षा के लिए ही अवकाश नहीं है। इसमें प्रायोगिक विधि से परिवर्तन की प्रक्रिया और उसके कारणों का भी विश्लेषण किया जाता है।
- वर्तमान में परीक्षा और प्रयोग, ये दोनों पद्धतियां धर्म के क्षेत्र में व्यवहृत नहीं हैं। उसका आचरण प्रायः पूर्व-मान्यता के आधार पर चल रहा है। पूर्व-मान्यता का उपयोग नहीं है, ऐसा मैं नहीं कहता। तर्कशास्त्र
और विज्ञान दोनों क्षेत्रों में उसका उपयोग है। तर्कशास्त्रीय मर्यादा में पूर्व-मान्यता (विकल्पसिद्ध पक्ष) को स्वीकृति दिए बिना वाद और प्रतिवाद का प्रारम्भ ही नहीं हो सकता। वैज्ञानिक भूमिका में पूर्व-मान्यता को स्थान दिए बिना प्रयोग का द्वार ही नहीं खुलता। एक तर्कशास्त्री पूर्वमान्यता से चिपके नहीं रह सकता। साधन के द्वारा साध्य की सिद्धि हो जाने पर वह विकल्पसिद्ध पक्ष से हटकर प्रमाणसिद्ध पक्ष की परिधि में चला जाता है। एक वैज्ञानिक प्रयोगसिद्ध भूमिका में पहुंचकर पूर्व-मान्यता को छोड़ देता है। वैसाखी मानवीय शरीर का अंग नहीं है। वह मात्र उपकरण है। पैरों की अशक्तदशा में मनुष्य उसे धारण करता है। पैरों की शक्ति प्राप्त होने पर भी क्या उसे धारण करना अनिवार्य है? पूर्व-मान्यता को हम वैसाखी से अधिक मूल्य नहीं दे सकते। हमने धर्म को एक पूर्व-मान्यता के रूप में स्वीकार कर रखा है। ऐसा करना हमारी नासमझी नहीं है किन्तु उसे पूर्व-मान्यता के रूप में ही स्वीकार किए रहना निश्चित रूप में नासमझी है। एक बौद्धिक के लिए धर्म
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