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१८८ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
भाषा और परिस्थिति-इस सारे चक्रवाल पर ध्यान दें। हम कहते हैं-यह वस्तु मेरी निश्राय-आश्रय में है। यह मेरा है-ऐसा कहने वाला प्रायश्चित्त का भागी होता है।
जैनेन्द्र-ट्रस्टीशिप के लिए यह 'निश्राय' शब्द चल सकता है। गांधीजी को इसके लिए उपयुक्त हिन्दी-शब्द नहीं मिल रहा था। ___मुनिश्री-भिक्षु स्वामी और जयाचार्य ने साधु-संघ में ममत्व-विसर्जन को घ्यावहारिक रूप दिया था। वह तेरापंथ की बड़ी उपलब्धि है। चातुर्मास-समाप्ति के बाद साधु-साध्वियों के सिंघाड़े आचार्य-दर्शन को आते हैं। वे सबसे पहले इस शब्दावली का उच्चारण करते हैं-ये मेरे सहयोगी साधु या साध्वियां, पुस्तकें और मैं आपकी सेवा में समर्पित हैं। आप जहां चाहें वहां रहने को तैयार हैं।' इस पूर्ण समर्पण के बाद ही वे भोजन और पानी लेते हैं।
ममत्व-विसर्जन की प्रक्रिया निष्पन्न होने पर शान्ति का उदय या आत्मोदय होता है। लोग दूध को गर्म करते हैं, जमाते हैं, बिलौना करते हैं, यह सब क्यों करते हैं? मक्खन के लिए। वैसे ही सारा प्रयत्न शान्ति के लिए है, सुख के लिए है, यह कहते-कहते मैं रुक जाता हूं। गीता में कहा है-अशान्तस्य कुतः सुखम्-अशान्त को सुख कहां? जितने शास्त्र लिखे गए, वे सब शान्ति की उपलब्धि के लिए लिखे गए, ऐसा एक आचार्य का अभिमत है
'शमार्थं सर्वशास्त्राणि, विहितानि मनीषिभिः ।
स एव सर्वशास्त्रज्ञः, यस्य शान्तं सदा मनः ॥' चन्दन का भार ढोने वाला गधा केवल भार का भागी बनता है, सुगन्ध का नहीं। केवल शास्त्रों को दुइाई देने वाला शास्त्रों का भार ढोता है, उनकी सुगन्ध का अनुभव नहीं कर पाता। सुगन्ध का अनुभव उसे होता है, जिसका मन शान्ति से पुलक उठता है।
पांच-छह वर्ष पहले एक भाई मेरे पास आया। उसने पूछा- 'आप गुरु किसे मानते हैं? मैंने कहा-'अपने आपको। दूसरे को कौन मानता है? क्या आप आचार्य तुलसी को गुरु नहीं मानते ? उसने फिर पूछा। मैंने कहा-'आचार्य तुलसी को इसीलिए मानता हूं कि उनका अहम् मेरे
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