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________________ ममत्व का विसर्जन या विस्तार १८६ अहम् से मुझे भिन्न प्रतीत नहीं होता।' ____ जहां अहम् का तादात्म्य होता है वहीं गुरु और शिष्य का एकत्व होता है। कबीर ने कहा है जब 'मैं' था तब गुरु नहीं अब गुरु हैं 'मैं' नाहिं । प्रेम गली अति सांकरी, जामें दो न समाहि ॥ जब अहम् था, तब गुरु नहीं थे। अब गुरु हैं, अहम् नहीं है। ममत्व-विस्तार में सारा विश्व अपना हो जाता है। वहां दूसरे की बुराई के लिए अवकाश नहीं रहता। प्रेम की सघनता इतनी है कि कहीं शून्यता नहीं है तो दूसरी बात कहां से आएगी? ममत्व का इतना विस्तार होने पर सीमित ममत्व स्वयं विसर्जित हो जाता है। ममत्व का विस्तार सकारात्मक है और ममत्व-विसर्जन नकारात्मक है। तात्पर्यार्थ में दोनों एक हैं। पहले सम्यक्-दर्शन होता है, फिर उसमें श्रद्धा उत्पन्न होती है। जिसमें श्रद्धा उत्पन्न होती है, उसमें चित्त लीन हो जाता है 'यत्रैवाहितधीः पंसः, श्रद्धा तत्रैव जायते । यत्रैव जायते श्रद्धा, चित्तं तत्रैव लीयते ॥' ममत्व-विसर्जन की बात अच्छी है, यह प्रथम परिचय है। ऐसी स्पष्ट अनुभूति होने पर श्रद्धा बनती है। ज्ञान तरल है। उसका घनीभूत होना ही श्रद्धा है। पानी तरल है। बर्फ उसी का घनीभूत रूप है। दूध तरल है। खोया उसी का घनीभूत रूप है। वैसे ही ज्ञान पुष्ट होते-होते श्रद्धा बन जाता है। जैनेन्द्र-ज्ञान बुद्धि से होता है और श्रद्धा अन्तर्मन से। राजकुमार-यह श्रद्धा कैसे प्राप्त हो? मुनिश्री-दूध से खोया बनता है, यह जान लेने पर उसे गाढ़ा बनाने के लिए समय लगाना होता है। वैसे ही ममत्व-विसर्जन की प्रक्रिया जान लेने के बाद उसके प्रयोग की आवश्यकता है। ___ मदन-ममत्व-विसर्जन से क्या सार्वजनिक जीवन में बाधा नहीं आती? मुनिश्री-व्यवहार में बाधा नहीं बल्कि वह अधिक स्वस्थ होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
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