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१६० मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
'छूट जाने' की स्थिति में बाधा आती है, किन्तु 'छोड़ देने' की स्थिति में नहीं। आचार्यश्री के पास एक बार शरणार्थी आए और कहा-'हमारा सब लुट गया।' आचार्यश्री ने कहा-'धन आपके पास नहीं है, हमारे पास भी नहीं है। मकान आपके पास नहीं है, हमारे पास भी नहीं है। परिवार आपके बिछुड़ गए, हम भी परिवार से दूर हैं। स्थिति दोनों की समान है, पर अनुभूति में अन्तर है और वह इसलिए कि आपसे ये 'छूट गए' हैं और हमने इन्हें 'छोड़ दिया' है।
फूलकुमारी-परिवार से संलग्न रहते हुए ममत्व का विस्तार करें तो क्या व्यवहार में कटुता नहीं आती?
जैनेन्द्र-(प्रश्न को स्पष्ट करते हुए कहा)-प्रश्न महत्त्वपूर्ण है। एक परिवार का सदस्य है। वह अपने ममत्व का विस्तार करना चाहता है तो पहले वह सगे रिस्तेदारों से आगे कम रिश्तेदारों से अपना ममत्व बांटता है, फिर उससे आगे इस प्रकार यदि वह क्रमिक और आंकिक विस्तार करता है तो परिवार में दिक्कत पैदा होती है। एक बार सवाल आया-व्यक्ति से विराट् बनना चाहिए। विराट् तो अनन्त है, वह कैसे होगा? विराट् बनना नहीं है, अहंशून्य हो जाए तो फिर उसकी सीमा कहां रह गई? अनन्त तक विराट् हो जाएगा।
एक गिलास दूध में एक चम्मच शक्कर डालने से वह सारे गिलास में फैलेगी, उसके आठवें भाग में नहीं। विस्तार की प्रक्रिया आंकिक व पारिमाणिक नहीं, गुणात्मक है। पचास हजार रुपये हैं। बीस आदमी सगे हैं और बीस आदमी परिवार के हैं। जिनमें यह भाव आया कि ममत्व-विसर्जन करना है उसने अपना संग्रह कम कर लिया। वह संग्रह से सम्बन्ध-विच्छेद कर वैसा कर सकता है।
मुनिश्री-ममत्व-विसर्जन यदि दानात्मक हो तो कटुता आ सकती है, किन्तु त्यागात्मक हो तो उसकी संभावना नहीं दिखाई देती। दान और त्याग में बड़ा अन्तर है। दान में अहं बद्ध होता है जब कि त्याग में वह मुक्त हो जाता है। ममत्व के साथ जुड़े भय और चिन्ता निर्ममत्व के साथ जुड़कर अभव और निश्चितता में बदल जाते हैं। यह मन की शान्ति का अमोघ सूत्र है।
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