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________________ १६२ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति भिन्नता है। जिसका मन जितना तरल है, वह उतना ही बाह्य परिस्थिति से प्रभावित होगा। मन की शान्ति नितान्त घटना से नहीं, मानसिक चंचलता से भंग होती है। मानसिक शान्ति के लिए घटना और घटनाजनित परिणाम का विश्लेषण होना आवश्यक है। ... जैनेन्द्र-शान्ति श्मशान की शान्ति नहीं होनी चाहिए। जड़ शान्ति में चैतन्य कुण्ठित हो जाता है। . मुनिश्री-मैं परिस्थिति से आंख-मिचौली करने वाली कृत्रिम शान्ति की बात नहीं कर रहा हूं। अन्याय के प्रतिकार को मैं शान्ति-भंग नहीं कह रहा हूं। मैं उस शान्ति की बात कह रहा हूं, जिसमें प्रतिकार की शक्ति सुरक्षित है, जिसे प्रतिगामी चुनौती नहीं दे सकता, प्रतिकार की क्षमता से विचलित कर स्वयं को आकुल नहीं बना सकता। मन की स्थिति सुदृढ़ होने पर वह अग्राह्य को छोड़ देता है, जैसे चलनी आटा छानती है उसमें अग्राह्य अंश शेष रह जाता है। कुटिलता व्यक्त होने पर ऋजुता शेष रहती है। ग्रन्थि-मोक्ष अपने आप हो जाता है। ७. संकल्प-शक्ति का विकास हमारे शरीर में दो केन्द्र हैं-ज्ञान केन्द्र और क्रिया केन्द्र। दो नाड़ी-क्रम हैं-ज्ञानवाही नाड़ी-क्रम और क्रियावाही नाडी क्रम। ज्ञानवाही नाड़ियों का सम्बन्ध ज्ञान-केन्द्र से है और क्रियावाही नाड़ियों का सम्बन्ध क्रियाकेन्द्र से। मनोविज्ञान के अनुसार मानस की प्रवृत्तियों के तीन पक्ष हैं-ज्ञानपक्ष, वेदनापक्ष और क्रियापक्ष । ज्ञान और क्रिया में कोई दूरी नहीं होती, यदि मनुष्य वेदनाशील नहीं होता। पेट ठीक न होने से विवेक कहता है, आज दूध नहीं मट्ठा लेना चाहिए। यह विवेककृत मोड़ या परिवर्तन है। विवेक की अपेक्षा आस्था का स्थान पहला है। संकल्प का कार्य है-ज्ञान को आस्था में बदलना। संकल्प, जप और भावना-ये तीन शब्द हैं। पतंजलि ने जप शब्द का प्रयोग किया। जैन-साहित्य में भावना शब्द है और आधुनिक साहित्य में संकल्प शब्द अधिक व्यवहृत है। तीनों शब्दों के तात्पर्य में कोई अन्तर नहीं है। जप का अर्थ है-तदर्थभावित होना। जप्य से इतना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
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