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१०४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति एक आदमी दूसरे आदमी से इसीलिए डरता है कि उसके मन में छिपाव है, घुमाव है, अस्पष्टता है और अन्धकार है।
हम भोले न हों-सामने की स्थिति का प्रतिबिम्ब लेने की स्वच्छता से वंचित न हों। हम मायावी भी न हों-अपने मन की कलुषता से सामने वाले के मन को कलुषित करने की दक्षता से सम्पन्न न हों। हम सरल हों-वातावरण के प्रति सजग हों, किन्तु दूसरों के प्रति मन में मलिन भाव न हो। जिसका मन सरल होता है, वह दूसरों से ठगा नहीं जाता। ठगा वही जाता है, जिसके अपने मन में मैल होता है।
__ एक बुढ़िया जा रही थी। सिर पर एक गठरी थी। उसी रास्ते से एक युवक जा रहा था। उसके मन में करुणा का भाव आया। उसने बुढ़िया से कहा, 'दादी! कुछ देर के लिए गठरी मुझे दे दो। तुम्हें थोड़ा-सा विश्राम मिल जाएगा।' बुढ़िया ने उसका भाव देखा और गठरी उसे दे दी। थोड़ी देर बाद बुढ़िया ने गठरी फिर ले ली। युवक का मन बदल गया। उसने सोचा-गठरी मेरे पास थी। उसे लेकर मैं भाग जाता तो बुढ़िया मेरा क्या करती? युवक ने फिर गठरी मांगी। बुढ़िया ने वह नहीं दी। उसने फिर आग्रह किया तो बुढ़िया ने कहा, 'अब नहीं दूंगी।' उसने पूछा, 'दादी! अब क्यों नहीं दोगी? बुढ़िया बोली-'बेटा! अब नहीं दूंगी। जो तुझे कह गया, वह मुझे भी कह गया।' ।
- सरलता मन का वह प्रकाश है, जिसमें कोई भी वस्तु अस्पष्ट नहीं रहती। माया मन का वह अन्धकार है, जिसमें आदमी भटकता है, भटकता है और भटकता ही रहता है।
१६. मार्दव
गुलाब के फूल में जो सौन्दर्य और सुगन्ध है, वह हर फूल में नहीं है। यह उत्कर्ष और अपकर्ष प्रकृति का नियम है। जहां पहाड़ है, वहां चोटी भी है और तलहटी भी है। पहाड़ में विचार-शक्ति नहीं है, इसलिए उसकी चोटी और तलहटी में कोई संघर्ष नहीं है। मनुष्य विचारशील प्राणी है। जो तलहटी पर खड़ा है, वह चोटी वाले को देख हीन-भावना से भर जाता है और जो चोटी पर खड़ा है, वह तलहटी वाले को देखकर
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