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(३८) श्री विपाकसूत्र
[प्राकथन स्वभाव से अर्थात् बिना कहे सुने मृदुता वा सरलता का होना ये मनुष्यायुष्कर्म के बन्धहेतु हैं ।
४-देवायुष्कर्म के बन्धहेतु–सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और चालतप ये *देवायु के बन्धहेतु हैं । हिंसा, असत्य, चोरी आदि महान् दोषों से विरतिरूप संयम के लेने के बाद भी कषायों का कुछ अंश जब बाक़ी रहता है तब वह सरागसंयम कहलाता है । हिंसाविरति आदि व्रत जब अल्पांशरूप में धारण किए जाते हैं तब वह संयमासंयम कहलाता है । पराधीनता के कारण या अनुसरण-अनुकरण के लिए जो अहितकर प्रवृत्ति किंवा आहारादि का त्याग है वह अकामनिर्जरा है और बालभाव से अर्थात् विवेक के बिना ही जो अग्निप्रवेश, जलप्रवेश, पर्वतप्रपात, विपभक्षण, अनशन आदि देहदमन किया जाता है वह बालतप है।
६-नामकर्म की शुभनामकर्म और अशुभनामकर्म ये दो मूलप्रकृतियां है। इन के बन्धहेतुओं का विवरण निम्नोक्त है
१-अशुभनामकर्म के बन्धहेतु-योग की वक्रता और विसंवाद ये अशुभनामकर्म के बन्धहेतु हैं । १-मन, वचन और काया की कुटिलता का नाम योगवक्रता है । कुटिलता का अर्थ हैसाचना कुछ, बोलना कुछ और करना कुछ । २-अन्यथा प्रवृत्ति कराना किंवा दो स्नेहियों के बीच भेद डालना विसंवादन है ।
२-शुभनामकर्म के बन्धहेतु-इसके विपरीत अर्थात् योग की अवक्रता और अविसंवाद शभनामकर्म के बन्धहेतु हैं। तात्पर्य यह है कि अशुभनामकर्म के सम्बन्ध में जो कुछ कहा गया है उस से उलटा अर्थात् मन, वचन और काया की सरलता--प्रवृत्ति की एकरूपता तथा संवादन अर्थात् दो के बीच भेद मिटा कर एकता करा देना किंवा उलटे रास्ते जाते हुए को अच्छे रास्ते लगा देना, ये शुभनामकर्म के बन्धहेतु हैं ।।
गोत्रकर्म के नीचगोत्र और उच्चगोत्र ऐसे दो मूलभेद हैं । इनके बन्धहेतुयों का संक्षिप्त परिचय निम्नोक्त है
१-नीचगोत्र के बन्धहेतु--परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, सद्गुणों का आच्छादन और असद्गुणों का प्रकाशन ये नीचगोत्र के बन्धहेतु हैं । दूसरे की निन्दा करना परनिन्दा है । निन्दा का अर्थ है सच्चे या झूठे दोषों को दुर्बुद्धि से प्रकट करने की वृत्ति । अपनी बड़ाई करना यह
आत्मप्रशंसा है अर्थात् सच्चे या झूठे गुणों को प्रकट करने की जो वृत्ति है वह प्रशंसा है । दूसरों में यदि *सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि देवस्य । (तत्त्वा० ६।२०)
योगवक्रताविसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः । (तत्त्वा० ६।२१) विपरीतं शुभस्य । (तत्त्वा० ६।२२) *परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणाच्छादनोद्भावने च नीचेर्गोत्रस्य (तत्त्वा० ६२४)
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