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(३६)
श्री विपाकसूत्र
[प्राक्कथन
नम्र भाव से अर्पण करना दान है । सरागसंयम आदि योग का अर्थ है - सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप इन सबों में यथोचित ध्यान देना । संसार की कारणरूप तृष्णा को दूर करने में तत्पर होकर संयम स्वीकार लेने पर भी जबकि मन में राग के संस्कार क्षीण नहीं होते तब वह संयम सरागसंयम कहलाता है। कुछ संयम को स्वीकार करना संयमासंयम है । अपनी इच्छा से नहीं किन्तु परतन्त्रता से जो भोगों का त्याग किया जाता है वह अकामनिर्जरा है । बाल अर्थात् यथार्थ ज्ञान से शून्य मिध्यादृष्टि वालों का जो अग्निप्रवेश, जलपतन, गोबर आदि का भक्षण, अनशन आदि तप है वह बालतप कहा जाता है । धर्मदृष्टि से क्रोधादि दोषों का शमन क्षांति कहलाता है । लोभवृत्ति और तत्समान दोषों का जो शमन है वह * शोच कहलाता है ।
(४) मोहनीयकर्म की दर्शन मोहनीय, चारित्रमोहनीय ऐसी दो मूल प्रकृतियं होती हैं । १—जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा समझना दर्शन है, और दर्शन का घात करने वाला कर्म दर्शनमोहनीय है । २ – जिस के द्वारा आत्मा अपने असली स्वरूप को प्राप्त कर लेता है, वह चारित्र है और उस का घातक कर्म चारित्रमोहनीय है ।
(क) दर्शनमोहनीय के बन्धहेतु - १ - केवली - प्रणवाद - केवली - केवलज्ञानी का अवर्णवाद अर्थात् केवली के असत्य दोषों को प्रकट करना । जैसे सर्वज्ञत्व के संभव का स्वीकार न करना, और ऐसा कहना कि सर्वज्ञ होकर भी उसने मोक्ष के सरल उपाय न बतला कर जिन का आचरण शक्य नहीं ऐसे दुर्गम उपाय क्यों कर बतलाये हैं ? इत्यादि ।
२- श्रुत का वर्णवाद - अर्थात् शास्त्र के मिथ्या दोषों को द्वेषबुद्धि से वर्णन करना, जैसे यह कहना कि ये शास्त्र अनपढ़ लोगों की प्राकृतभाषा में, किंवा पण्डितों की जटिल संस्कृतादि भाषा में रचित होने से तुच्छ हैं, अथवा इन में विविध व्रत, नियम तथा प्रायश्चित्त का अर्थहीन एवं परेशान करने वाला वर्णन है, इत्यादि ।
३ - साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकारूप चतुर्विध संघ के मिथ्या दोषों का जो प्रकट करना है, वह संघ - वर्णवाद कहलाता है । जैसे यों कहना कि साधु लोग व्रत नियम आदि का व्यर्थ क्लेश उठाते हैं, साधुत्व तो संभव ही नहीं, तथा उस का कुछ अच्छा परिणाम भी तो नहीं निकलता । श्रावकों के बारे में ऐसा कहना कि स्नान, दान आदि शिष्ट प्रवृत्तियां नहीं करते और न पवित्रता को ही मानते हैं, इत्यादि ।
४- धर्म का वर्णवाद - अर्थात अहिंसा आदि महान् धर्मो के मिथ्या दोष बतलाना । जैसे यों कहना कि धर्म प्रत्यक्ष कहां दोखता है ? और जो प्रत्यक्ष नहीं दीखता उस के अस्तित्व का संभव ही कैसा ? तथा ऐसा कहना कि अहिंसा से मनुष्यजाति किंवा राष्ट्र का पतन हुआ है, इत्यादि । ५ - देवों का वर्णवाद - अर्थात् उन की निन्दा करना, जैसे यों कहना कि देवता तो हैं ही
भूतवत्यनुकम्पा दानं सरागसंयमादियोगः क्षांतिः शौचमिति सद्वेद्यस्य ।
(तत्वा० ६ १३)
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