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(३४)
श्री विपाकसूत्र
प्राक्कथन ]
सम्यग्दर्शन से उलटा होता है। मिथ्यादर्शन दो प्रकार का होता है। पहला वस्तुविषयक यथार्थ श्रद्धान का अभाव और दूसरा वस्तु का अयथार्थ श्रद्धान। पहले और दूसरे में फर्क इतना है कि पहला बिल्कुल मुददशा में भी हो सकता है जबकि दूसरा विचारदशा में ही होता है । विचारशक्ति का विकास होने पर भी जब अभिनिवेश- आग्रह के कारण किसी एक ही दृष्टि को पकड़ लिया जाता है, तब विचार दशा के रहने पर भी अतत्व में पक्षपात होने से वह दृष्टि मिथ्यादर्शन कहलाती है । यह उपदेशजन्य होने से अभिगृहीत कही जाती है। जब विचारदृशा जागृत न हुई हो तब अनादिकालीन आवरण के भार के कारण सिर्फ सूढ़ता होती है, उस समय जैसे तत्व का श्रद्धान नहीं होता वैसे तत्व का भी श्रद्धान नहीं होता, इस दशा में सिर्फ मूढ़ता होने से तत्व का श्रश्रद्धान कह सकते हैं, वह नैसर्गिक - उपदेशनिरपेक्ष होने से अनभिगृहीत कहा गया है । दृष्टि या पन्थ सम्बन्धी जितने भी ऐकान्तिक कदाग्रह हैं वे सभी अभिगृहीत मिथ्यादर्शन हैं जो कि मनुष्य जैसी विकसित जाति में हो सकते हैं। और दूसरा अनभिगृहीत तो कीट, पतंग आदि जैसी मूच्छित चैतन्य वाली जातियों में संभव है। अविरति दोषों से विरत न होने का नाम है। प्रमाद का मतलब है- आत्मविस्मरण अर्थात् कुशल कार्यों में आदर न रखना, कर्तव्य, कर्तव्य की स्मृति के लिए सावधान न रहना । कपाय अर्थात् समभाव की मर्यादा का तोड़ना । योग का अर्थ है - मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति । ये जो * कर्मबन्ध के हेतुओं का निर्देश है वह सामान्यरूप से है । यहां प्रत्येक मूलकर्मप्रकृति के बन्धहेतुओं का वर्णन कर देना भी प्रसंगोपात्त होने से आवश्यक प्रतीत होता है
(१) ज्ञानावरणीयकर्म के तत्प्रदोष, निह्नव मात्सर्य, अन्तराय,
प्रसादन और
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उपघात ये ६ बन्धहेतु होते हैं । इनका भावार्थ निम्नोक्त है—
१ - ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञान के साधनों पर द्वेष करना या रखना अर्थात् तत्त्वज्ञान के निरूपण के समय कोई अपने मन ही मन में तत्त्वज्ञान के प्रति, उसके वक्ता के प्रति किंवा उस के साधनों के प्रति जलते रहते हैं, यही तत्प्रदोष - ज्ञानप्रद्व ेष कहलाता है ।
२- कोई किसी से पूछे या ज्ञान का साधन मांगे तब ज्ञान तथा ज्ञान के साधन अपने पास होने पर भी कलुषित भाव से यह कहना कि मैं नहीं जानता अथवा मेरे पास वह वस्तु है ही नहीं वह ज्ञाननिव है ।
* बन्ध 'के हेतुओं की संख्या के बारे में तीन परम्पराएं देखने में आती हैं। एक परम्परा के अनुसार कषाय और योग ये दोनों ही बन्ध के हेतु हैं। दूसरी परम्परा मिध्यात्व, अविरति, कपाय और योग इन चार बन्धहेतुओं की है । तीसरी परम्परा उक्त चार हेतुओं में प्रमाद को और बढ़ाकर पांच बन्धहेतुओं का वर्णन करती है। इस तरह से संख्या और उसके कारनामों में भेद रहने पर भी तात्त्विकदृष्टया इन परम्पराओं में कुछ भी भेद नहीं है । प्रमाद एक तरह का असंयम ही तो है, अतः वह अविरतिया कषाय के अन्तर्गत ही है । इसी दृष्टि से कर्मप्रकृति आदि ग्रन्थों में सिर्फ चार बन्धहेतु कहे गये हैं। बाक़ी से देखने पर मिध्यात्व और असंयम ये दोनों कषाय के स्वरूप से अलग नहीं पड़ते, अतः कषाय और योग इन दोनों को ही बन्धहेतु गिनाना प्राप्त होता है ।
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