________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
श्री विपाकसूत्र
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
(३२)
है, यही नाभि के ऊपर के अवयवों में शुभत्व है ।
६० - सुभगनामकर्म - इस कर्म के उदय से किसी प्रकार का उपकार किये बिना या किसी तरह के सम्बन्ध के बिना भी जीव सब का प्रीतिभाजन बनता है ।
I
६१ - सुस्वरनामकर्म - इस कर्म के उदय से जीव का स्वर मधुर और प्रीतिकर होता है । जैसे कि कोयल, मोर आदि जीवों का स्वर प्रिय होता है ।
६२ - देयनामकर्म - इस कर्म के उदय से जीव का वचन सर्वमान्य होता है ।
[प्राक्कथन
For Private And Personal
६३ - यशः कीर्तिनामकर्म- - इस कर्म के उदय से संसार में यश और कीर्ति फैलती है । किसी एक दिशा में नाम (प्रशंसा) हो तो उसे कीर्ति कहते हैं और सब दिशाओं में होने वाले नाम को यश कहते हैं । अथवा दान, तप, आदि के करने से जो नाम होता है वह कीर्ति और शत्रु पर विजय प्राप्त करने से जो नाम होता है वह यश कहलाता है ।
६४ - स्थावरनामकर्म - इस कर्म के उदय से जीव स्थिर रहते हैं। सर्दी, गर्मी से बचने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्वयं नहीं जा सकते। जैसे वनस्पति के जीव ।
६५- सूक्ष्मनामकर्म - इस कर्म के उदय से जीव को सूक्ष्मशरीर (जो किसी को रोक न सके और न स्वयं ही किसी से रुक सके) प्राप्त होता है । इस नामकर्म वाले जीव ५ स्थावर हैं और ये सब लोकाकाश में व्याप्त हैं, आंखों से नहीं देखे जा सकते ।
६६ - अपर्याप्तनामकर्म- इस कर्म के उदय से जीव स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण नहीं कर पाता । ६७ - साधारण नामकर्म - इस कर्म के उदय से अनन्त जीवों को एक ही शरीर मिलता है अर्थात् अनन्त जीव एक ही शरीर के स्वामी बनते हैं । जैसे आलू, मूली आदि के जीव ।
६८ - अस्थिरनामकर्म - इस कर्म के उदय से कान, भौंह, जिह्वा आदि अवयव अस्थिर अर्थात् चपल होते हैं ।
- शुभनामकर्म - इस कर्म के उदय से नाभि के नीचे के अवयव पैर आदि अशुभ होते हैं । पैर का स्पर्श होने पर अप्रसन्नता होती है, यही इस का अशुभत्व है ।
१०० - दुर्भगनामकर्म - इस कम के उदय से उपकार करने वाला भी अप्रिय लगता है । १०१ - दुःस्वरनामकर्म - इस कर्म के उदय से जीव का स्वर कर्कश -सुनने में अप्रिय, लगता है । १०२ - श्रनादेयन (मकर्म - इस कर्म के उदय से जीव का वचन युक्तियुक्त होते हुए भी अनादर
C
णीय होता है।
१०३ - यशः कीर्तिनामकर्म - इस कर्म के उदय से जीव का संसार में अपयश और अपकीर्ति फैलती है ।
(७) गोत्रकम के दो भेद होते हैं । इनका संक्षिप्त पर्यालोचन निम्नोक्त है
१ - उच्चगोत्र - इस कर्म के उदय जीव उत्तम कुल में जन्म लेता है ।